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काव्यलिङ्गालङ्कारः
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इत्यत्र 'ब्रह्मणः प्रापणं कथं गोदावर्या कर्तव्यम् ?' इत्यसंभावनीयार्थोपपादकस्य 'अर्णवमध्य-' इत्यादितद्विशेषणस्य न्यसनं श्लेषाख्यो गुण इति, 'श्लेषोऽविघटमानार्थघटकार्थस्य वर्णनम्' इति श्लेषलक्षणमिति च जयदेवेनोक्तम् । वस्तुतस्तु – अत्रापि पदार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमेव, तद्भेदकाभावात् । ननु साभिप्रायपदार्थ वाक्यार्थविन्यसनरूपात् परिकरात्काव्यलिङ्गस्य किं भेदकम् ? उच्यते, परिकरे पदार्थवाक्यार्थबलात्प्रतीयमानार्थी वाच्योपस्कारकतां भजतः । काव्यंलिङ्गे तु पदार्थवाक्यार्थावेव हेतुभावं भजतः । ननु यद्यपि 'सुखालोकोच्छे दिन' इत्यादिपदार्थहेतुककाव्यलिङ्गोदाहरणे 'अमेऽप्यनतिमान्' इत्यादिवाक्यार्थहेतुककाव्यलिङ्गोदाहरणे च पदार्थ - वाक्यार्थावेव हेतुभावं भजतस्तथापि 'पशुनाप्यपुरस्कृतेन' इति पदार्थहेतुकोदाहरणे 'मचित्तेऽस्ति त्रिलोचनः' इति वाक्यार्थहेतुको -
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के नाभिकमल के आसन पर स्थित ब्रह्मा के पास ले जाओ, नहीं तो यह बेचारी सरस्वती इस पृथ्वी पर अकेली कैसे रह पायगी ?
यहाँ 'गोदावरी सरस्वती को ब्रह्मा के पास कैसे पहुँचा सकती है' इस असम्भावनीय अर्थ के समर्थन के लिए 'अर्णवमध्य.. आदि विशेषण का उपन्यास किया गया है अतः यहाँ जयदेव के द्वारा उक्त श्लेष गुण के लक्षण - 'जहाँ अविघटमान अर्थ के घटक अर्थ का वर्णन हो, वहाँ श्लेष होता है'-के अनुसार यहाँ श्लेष नामक गुण है । अप्पय दीक्षित इसे भी काव्यलिङ्ग का ही स्थल मानते हैं । वे कहते हैं - वस्तुतः हेतुक काव्यलिङ्ग ही है, क्योंकि यह स्थल काव्यलिङ्ग वाले स्थल से प्रमाणरूप में हम किसी भेदक ( दोनों को अलग अलग करने वाले ) नहीं कर सकते ।
यहाँ भी पदार्थभिन्न है, इसके तत्व का निर्देश
पूर्वपक्षी पुनः यह जानना चाहता है कि साभिप्राय विशेषणरूप पदार्थ या वाक्यार्थ वाले परिकर अलंकार से काव्यलिंग का क्या भेद है ? इसका उत्तर देते हुए अप्पयदीक्षित बताते हैं कि परिकर अलंकार में सर्वप्रथम पदार्थ या वाक्यार्थ की प्रतीति होती है, तदनंतर ( वाध्य रूप ) पदार्थ या वाक्यार्थ से व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है, तथा यह व्यंग्यार्थं सम्पूर्ण ( काव्य ) उक्ति का उपस्कारक बन कर आता है, अर्थात् यहाँ प्रतीयमान ( व्यंग्य ) अर्थ वाच्यार्थ का सहायक होता है । जब कि काव्यलिंग में पदार्थ - वाक्यार्थ रूप वाच्यार्थ स्वयं ही समर्थनीय वाक्य के हेतु बनकर आते हैं । इस प्रकार प्रथम सरणि (परिकर ) में वहाँ बीच में व्यंग्यार्थ भी पाया जाता है, द्वितीय सरणि ( काव्य लिंग ) में यह नहीं होता । पूर्व पक्षी फिर एक दलील पेश करता है कि कई स्थानों पर व्यंग्यार्थ भी वाच्यार्थ का हेतु बन कर आता देखा जाता है, केवलं उसका उपस्कारक नहीं । हम सिद्धांत पक्षी के द्वारा दिये गये काव्यलिंग के उदाहरणों को ही ले लें। हम देखते हैं कि 'सुखालोकोच्छेदिनि' वाले पदार्थहेतुक काव्यलिंग के उदाहरण में तथा 'अग्रेऽप्यनतिमानू' वाले वाक्यार्थहेतुक काव्यलिंग के उदाहरण में क्रमशः ( वाध्यरूप ) पदार्थ तथा वाक्यार्थ ही हेतु हैं; किंतु 'पशुनाप्यपुरस्कृतेन' वाले पदार्थहेतुक काव्यलिंग तथा 'मच्चितेऽस्ति त्रिलोचनः' वाले वाक्यार्थहेतुक काव्यलिंग के उदाहरणों में यह बात नहीं पाई जाती। यहाँ इन दोनों के द्वारा व्यंजित प्रतीयमान ( व्यंग्य ) अर्थ भी हेतु कोटि में प्रविष्ट दिखाई पड़ता है। 'पशुना' इस पद से बुद्धिहीनता (विवेकरहितता ) की व्यंजना होती है, क्योंकि यह पद उसी पथ में दमयन्ती के लिए प्रयुक्त 'विदुषी' पद का विपरीतार्थक शब्द है । इसी तरह