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पर्यायालङ्कारः
१८३ एकस्मिन् यद्यनेकं वा पर्यायः सोऽपि संमतः ।
अधुना पुलिनं तत्र यत्र स्रोतः पुराऽजनि ॥ १११ ।। यथा वापुराऽभूदस्माकं प्रथममविभिन्ना तनुरियं,
ततो नु त्वं प्रेयान , वयमपि हताशाः प्रियतमाः। इदानीं नाथस्त्वं, वयमपि कलत्रं किमपरं,
हतानां प्राणानां कुलिशकठिनानां फलमिदम् ॥ अत्र दम्पत्योः प्रथममभेदः, ततः प्रेयसीप्रियतमभावः, ततो भार्यापतिभाव इत्याधेयपर्यायः ॥ १११॥ औचित्यात् तस्मादत्रैकविषयः सारालकार उचितः, यं रत्नाकरादयो वर्धमानकालारमामनन्ति स चायुष्मता नोदृङ्कित एव ।
(रसगङ्गाधर पृ० ६४७) जहाँ एक ही आधार में अनेक पदार्थों का क्रम से वर्णन किया जाय, वहाँ भी पर्याय होता है । जैसे, जहाँ पहले नदी का स्रोत था, वहाँ आज नदी का तीर हो गया है।
टिप्पणी-पण्डितराज ने कुवलयानन्दकार के 'अधुना पुलिनं तत्र यत्र स्रोतः पुराभवत्' में पर्याय अलंकार नहीं माना है, क्योंकि लौकिक वाक्य की भौति यहाँ कोई चमत्कार नही है।
(एवं स्थिते 'अधुना पुलिनं तत्र यत्र स्रोतः पुराभवत्' इति कुवलयानन्दगतमु. दाहरणं 'यत्र पूर्व घटस्तत्राधुना पटः' इति वाक्यवलौकिकोकिमात्रमित्यनुदाहार्यमेव ।)
( रसगंगाधर पृ० ६४८) इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण उत्तररामचरित का निम्न पद्य है :
पुरा यत्र स्रोतः पुलिनमधुना तत्र सरितां
विपर्यासं यातो घनविरलभावः दितिरुहाम् । बहोदृष्टं कालादपरमिव मन्ये वनमिदं ।
निवेशः शैलानां तदिदमिति बुद्धिं द्रढयति ॥ एक आधार में अनेकों आधेयों के क्रम से वर्णन वाले पर्याय अलंकार के भेव का उदाहरण निम्न है:
कोई नायिका अपने प्रति रूह व्यवहार वाले नायक की चेष्टा की न्याना कराती हुई कह रही है:-पहले तो हमारा प्रेम इतना गहरा था कि हमारा शरीर एक था, लेकिन धीरे धीरे वह व्यवहार समाप्त हो गया और तुम प्रिय बन गये, हम प्रियतमा। प्रेम की अद्वैतस्थिति का अनुभव करने के बाद जब तुम्हारा मन भर गया, तो हमारा मन एक न रह सका, पर फिर भी किसी तरह प्रिय-प्रेयसी वाला व्यवहार बना रहा, तुम मुझे प्रेयसी समझते रहे, मैं तुम्हें प्रिय । यदि वह स्थिति भी बनी रहती तो ठीक था, पर मुझेतो इससे भी अधिक दुःख सहना था । तुम्हारा व्यवहार बदलता गया, तुम मुझे 'कलन (खरीदी हुई दासी के समान परनी) समझने लगे, मैं तुम्हें 'नाथ' (मालिक)। इससे बढ़कर मेरे लिए और दुःख हो ही क्या सकता है ? यह तो मेरे प्राणों का दोष है कि मैं इस व्यवहार परिवर्तन के बाद भी जी रही हूँ। यह सब मैं अपने वज्रकठोर प्राणों का फल भोग रही हूँ।
यहाँ पहले आधार ( दम्पति) में अभिन्नता थी, फिर प्रेयसीप्रियतमभाव हुआ, फिर कलन और नाथ (भार्यापति) का भाव, इस प्रकार एक ही आधार में क्रम से अनेकों आधेयों की स्थिति वर्णित की गई है, अतः यह भी पर्याय अलंकार का प्रकारान्तर है।