Book Title: Kuvayalanand
Author(s): Bholashankar Vyas
Publisher: Chowkhamba Vidyabhawan

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Page 292
________________ काव्यलिङ्गालङ्कारः १६५ ६० काव्यलिङ्गालङ्कारः समर्थनीयस्यार्थस्य काव्यलिङ्गं समर्थनम् । जितोऽसि मन्द ! कन्दर्प ! मच्चित्तेऽस्ति त्रिलोचनः ॥ १२१ ॥ अत्र कन्दर्पजयोपन्यासो दुष्करविषत्वात्समर्थनसापेक्षः तस्य 'मञ्चित्तेऽस्ति त्रिलोचनः' इति स्वान्तःकरणे शिवसंनिधानप्रदर्शनेन समर्थनं काव्यलिङ्गम् । व्याप्तिधर्मतादिसापेक्षनैयायिकाभिमतलिङ्गव्यावर्तनाय काव्यविशेषणम् । इदं वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गम् । पदार्थहेतुकं यथा भस्मोद्धूलन ! भद्रमस्तु भवते रुद्राक्षमाले ! शुभं ___ हा सोपानपरम्परे ! गिरिसुताकान्तालयालंकृते !। ६०. काव्यलिङ्ग अलङ्कार १२१–जहाँ समर्थनीय अर्थ का किसी पदार्थ या वाक्य के द्वारा समर्थन किया जाय, वहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है। जैसे, हे मूर्ख कामदेव, मैंने तुम्हें जीत लिया है, क्योंकि मेरे चित्त में त्रिलोचन (शिव) विद्यमान हैं। यहाँ कामदेव को जीतने का जो वर्णन किया गया है, वह दुष्कर विषय होने के कारण समर्थनसापेक्ष है। चूंकि कामदेव का जय सरल रीति से नहीं हो सकता तथा उसका जय केवल शिव ही कर सकते हैं, इसलिए 'कामदेव' मैंने तुम्हें जीत लिया है' इस उक्ति के समर्थन की आवश्यकता (अपेक्षा) उपस्थित होती हैं। इस बात का समर्थन 'क्योंकि मेरे चित्त में त्रिलोचन हैं, इस प्रकार अपने अन्तःकरण में शिव के स्थित रहने के वर्णन के द्वारा किया गया है। अतः यहाँ सापेक्ष समर्थन होने के कारण काव्यलिंग है। इस अलंकार का नाम काव्यलिंग इसलिए दिया गया है कि आलंकारिक नैयायिकों के लिंग (हेतु) से इसे भिन्न बताना चाहते हैं। नैयायिकों की अनुमानसरणि में जिस हेतु (अनुमापक) से साध्य की अनुमिति होती है, उसे लिंग भी कहा जाता है। जैसे, 'पर्वतोऽयं वह्निमान्धूमात्' इस वाक्य में 'धूम' लिङ्ग ( हेतु) है। नैयायिकों के इस लिङ्ग में साध्य के साथ व्याप्ति सम्बन्ध तथा पक्ष में उसकी सत्ता (धर्मता) होना जरूरी हो जाता है। जब तक 'धूम' (लिङ्ग) तथा 'अग्नि' (साध्य) में व्याप्ति सम्बन्ध न होगा तथा लिङ्ग 'पर्वत' (पक्ष) में न होगा, तब तक धूम (लिङ्ग) से अग्नि की अनुमिति न हो सकेगी। इस प्रकार नैयायिकों का 'लिङ्ग' व्याप्ति तथा पक्षधर्मता आदि की अपेक्षा रखता है, जब कि आलङ्कारिकों का यह 'हेतु' साध्य के साथ व्याप्ति सम्बन्ध तथा पक्ष में सत्ता रखता ही हो यह अपेक्षित नहीं। इसीलिए नैयायिकों के साधारण 'लिङ्ग' से इसका अन्तर बताने के लिए तथा इसमें उसका समावेश न कर लिया जाय इसलिए इसके साथ काव्य का विशेषण दिया गया है तथा इसे 'काव्यलिङ्ग' कहा जाता है। कारिकाध का उदाहरण वाक्यार्थहेतुक काव्यलिङ्ग का है । पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग का उदाहरण निम्न है। ___ कोई शिवभक्त शिवपूजा की सामग्री को सम्बोधित कर रहा है :-हे भस्म, तुम्हारा कल्याण हो, हे रुद्राक्षमाले, तुम कुशल रहो, पार्वती के पति शिव के मन्दिर को अलंकृत करने वाली सोपानपंक्ति, हाय (अब मैं तुमसे जुदा हो रहा हूँ) आज भगवान् शिव ने

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