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कारकदीपकालङ्कारः
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प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः
श्रुतेऽत्यन्तासक्तिः पुरुषमभिजातं प्रथयति ॥ ११६ ।।
___ ५६ कारकदीपकालंकारः क्रमिकैकगतानां तु गुम्फः कारकदीपकम् ।
गच्छत्यागच्छति पुनः पान्थः पश्यति पृच्छति ॥ ११७॥ यथा वानिद्राति स्नाति भुङ्क्ते चलति कचभरं शोषयत्यन्तरास्ते
दीव्यत्यक्षर्न चायं गदितुमवसरो भूय आयाहि याहि । इत्युदण्डैः प्रभूणामसकृदधिकृतैर्वारितान् द्वारि दीना:
____नस्मान् पश्याब्धिकन्ये ! सरसिरुहरुचामन्तरङ्गरपाङ्गः॥ आद्योदाहरणे श्रुतस्य पान्थस्य कर्तृकारकस्यैकस्य गमनादिष्वन्वयः; द्वितीये त्वध्याहृतस्य प्रभुकर्तृकारकस्य निद्रादिष्वन्वय इत्येकस्यानेकवाक्यार्थान्वयेन दीपकच्छायापत्त्या कारकदीपकं प्रथमसमुच्चयप्रतिद्वन्द्वीदम् ।। १५७ ।।
यहाँ प्रच्छन्नदानादि में से केवल एक पदार्थ भी व्यक्ति के कौलीन्य का हेतु है, पर यहाँ समस्त हेतुओं का समुच्चय पाया जाता है। टिप्पणी-इसी का अन्य उदाहरण यह है :पाटीरभुजंगपुंगवमुखोद्भूता वपुस्तापिनो,
वाता वान्ति दहन्ति लोचनममी ताम्रा रसालद्रमाः। श्रोत्रे हन्त किरन्ति कूजितमिमे हालाहलं कोकिला, बाला बालमृणालकोमलतनुः प्राणान्कथं रक्षतु ॥ (रसगंगाधर)
५६. कारकदीपक अलंकार ११७-जहाँ एक कारक गत अनेक क्रियाओं का युगपत् वर्णन हो, वहाँ कारकदीपक नामक अलंकार होता है। जैसे राहगीर जाता है, फिर लौटकर आता है, देखता है और पूछता है।
यहाँ एक कारण के साथ गमनादि चार क्रियाओं का एक साथ वर्णन किया गया है। (अन्य आलंकारिकों ने इसे अलग से अलंकार न मानकर दीपक अलंकार का ही एक भेद माना है।)
अथवा जैसे
कोई कवि लक्ष्मी की प्रार्थना कर रहा है। हे समुद्र की पुत्रि, कमल के समान कांति वाले अपने अपांगों से उन हम लोगों की ओर देखो, जिन दरिद्रों को राजाओं के दरवाजों पर भिक्षा के लिए उपस्थित होते समय उद्दण्ड अधिकारियों द्वारपालादि) के द्वारा यह कह कर बार बार रोक दिया जाता है:-'वे सो रहे हैं, नहा रहे हैं, भोजन कर रहे हैं, बाहर जा रहे हैं, बालों को सुखा रहे हैं, जनाने में हैं, पासे (जुआ) खेल रहे हैं, यह समय अर्ज करने का नहीं है, फिर आना, लौट जाओ।'
प्रथम उदाहरण में 'पान्थ' इस कर्ता कारक को गमनादि अनेकों क्रियाओं में अन्वय घटित होता है। दूसरे उदाहरण में पूर्वार्ध का कर्ता राजा (प्रभु) अध्याहृत (आक्षिप्त)