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पर्यायालङ्कारः
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धत्ते वक्षः कुचसचिवतामद्वितीयं तु वक्त्रं तगात्राणां गुणविनिमयः कल्पितो यौवनेन ॥'
इत्यत्र पर्यायं काव्यप्रकाशकृदुदाजहार । सर्वत्र शाब्दः पर्यायो यथा
नन्वाश्रयस्थितिरियं तव कालकूट ! केनोत्तरोत्तर विशिष्टपदोपदिष्टा ? | प्रागर्णवस्य हृदये, वृषलक्ष्मणोऽथ,
कण्ठेऽधुना वससि, वाचि पुनः खलानाम् ॥
सर्वोऽप्ययं शुद्धपर्यायः ।
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वावस्था में इसका जघनस्थल अत्यधिक पतला था, अब इसके जघनस्थल ने अपना पतart छोड़ दिया है और इसका मध्यभाग पतला हो गया है। पहले वचपन में इसकी गति बड़ी चञ्चल थी, यह पैरों से इधर उधर फुदकती थी। अब इसकी पैरों की चलता नष्ट हो गई है ( पैरों ने अपनी चञ्चल गति को छोड़ दिया है) और इसके नेत्रों ने चञ्चलगति धारण कर ली है, इसके नेत्र अधिक चञ्चल हो गये हैं। पहले इसका वक्षःस्थल अकेला (अद्वितीय ) था, अब उसने कुचों की मित्रता ( कुर्चों की मन्त्रिता ) धारण कर ली है, अब इसके वक्षःस्थल में स्तनों का उभार हो आया है; और वक्षःस्थल की अद्वितीता (अकेलेपन ) को मुख ने धारण कर लिया है-मुख अद्वितीय ( अत्यधिक तथा अनुपम सुन्दर ) हो गया है ।
यहाँ तनुता, तरलगति तथा अद्वितीयता इन तीन पदार्थों के आश्रय क्रमशः जघनस्थल, चरण और वक्षःस्थल तथा मध्यभाग, नेत्र और मुख पर्याय से वर्णित किये गये हैं, अतः एक पदार्थ के अनेक संश्रयों (आश्रयों) का पर्याय से वर्णन होने के कारण यहाँ पर्याय अलङ्कार है ।
उपर्युक्त दोनों उदाहरणों में अपर आधार के समाश्रय का स्पष्ट वर्णन किया गया है, किन्तु पूर्व आधार का त्याग पूर्व आधार के समाश्रय की व्यञ्जना करना है, अतः यहाँ अनेक संश्रय वाच्य ( शाब्द ) न होकर गभ्य है । जहाँ किसी पदार्थ की सर्वत्र सभी आश्रयों में स्पष्टतः स्थिति वणित की जाय, वहाँ शाब्द पर्याय होता है, जैसे
प्रस्तुत पद्य भलटकवि के अन्योक्तिशतक से है । इसमें कवि ने हालाहल को सम्बोधित करके उसकी विशिष्टता का संकेत किया है । हे कालकूट ( हालाहल विष ), यह तो बताओ, किस व्यक्ति ने तुमको उत्तरोत्तर विशिष्ट पद पर स्थित रहने की दशा का संकेत किया था ? वह कौन व्यक्ति था, जिसने तुम्हें इस बात का उपदेश दिया कि तुम तत्तत् विशिष्ट पद पर क्रमशः आसीन होना ? पहले तो तुम समुद्र के हृदय में निवास करते थे, वहाँ से फिर शिव के गले में रहने लगे ( हृदय से ऊपर गला है, गले का हृदय से विशिष्ट पद है) और उसके बाद अब दुष्टों की बाणी में-जिह्वा में ( जिह्वा कण्ठ के भी ऊपर है ) निवास कर रहे हो ।
यहाँ हालाहल की समुद्रहृदय, शिवकण्ठ तथा खलवाणी में क्रम से स्थिति वर्णित की गई है, अतः पर्याय है । यह सब पर्याय शुद्ध है । पर्याय पुनः दो तरह का होता है :सङ्कोचपर्याय तथा विकासपर्याय । जहाँ आधार ( आश्रय ) का उत्तरोत्तर सङ्कोच हो वहाँ