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कुवलयानन्दः
स्थापने यत्कारणत्वेन सम्भावितं बाल्यं तत्प्रत्युत तद्विरुद्धस्य सहनयनस्यैव कारणतया युवराजेन परित्यागस्यायुक्तत्वं दर्शयता समर्थ्यते । यथा वा--
लुब्धो न विसृजत्यर्थ नरो दारिद्रयशङ्कया ।
दातापि विसृजत्यर्थ तयैव ननु शङ्कया ।। अत्र पूर्वोत्तरार्धे पक्षप्रतिपक्षरूपे कयोश्चिद्वचने इति लक्षणानुगतिः ॥ १०३ ।।
४६ कारणमालालङ्कारः गुम्फः कारणमाला स्याद्यथाप्राक्प्रान्तकारणैः। नयेन श्रीः श्रिया त्यागस्न्यागेन विपुलं यशः ॥ १०४ ॥
उसी कारण को लेकर राजकुमार ने उस कार्य से भिन्न क्रिया-साथ में ले जाने-को कारण के रूप में उपन्यस्त कर उसे छोड़ना ठीक नहीं है, इस बात का समर्थन किया है।
अथवा जैसे'लोभी व्यक्ति इसलिये धन का दान नहीं करता कि कहीं वह दरिद्र न हो जाय । दानी व्यक्ति धन का दान इसलिये करता है कि उसे दरिद्र न होना पड़े।
यहाँ पूर्वार्ध तथा उत्तरार्ध में पक्षप्रतिपक्षरूप में दो व्यक्तियों की उक्तियों कही गई हैं। प्रथम हेतु को ही द्वितीयार्ध में तद्भिन्न क्रिया का साधन बनाया गया है, अतः यहाँ भी व्याघात अलंकार का लक्षण अन्वित हो जाता है।
टिप्पणी-पण्डितराज ने कुवलयानन्दकार के इस उदाहरण ('लुब्धो न विसृजत्यर्थम्' इत्यादि) का खण्डन किया है। वे बताते हैं कि यह व्याघात का उदाहरण नहीं है । (यत्त-'लुब्धो न..." इति कुवलयानन्द उदाहृतम्, तन्न-रसगंगाधर पृ० ६१९) पण्डितराज इसे व्याघात का उदाहरण इसलिए नहीं मानते कि पहले वाक्य में लोभी के पक्ष में 'मैं दरिद्र न बन जाऊँ' इस प्रकार वर्तमानकालक दारिद्रय की शंका अन्वित होती है। दूसरे वाक्य में दानी के पक्ष में 'मैं अगले जन्म में दरिद्र न बनूं' यह जन्मांतरीय (अन्य जन्म सम्बन्धी ) दारिद्रय-शंका अन्वित होती है । इस प्रकार लुब्ध तथा दानी के पक्ष में दोनों कारण एक ही नहीं है, भिन्न २ है, फलतः ध्याघात न हो सकेगा।
पण्डितराज के इस आक्षेप का उत्तर वैद्यनाथ ने दिया है, वे बताते हैं कि इन दोनों कारणों में अभेदाध्यवसाय मानने से दोनों में अभेदप्रतिपत्ति होगी, तदनन्तर इस उदाहरण में व्याघात का लक्षण घटित हो जायगा । __यद्यपि दारिद्रयस्य तात्कालिकत्वेन जन्मान्तरीयत्वेन च शङ्का भिन्ना तथाप्यभेदाध्य. वसायात् लक्षणसमन्वय इति बोध्यम् । ( चन्द्रिका पृ० १२५ )
४६. कारणमाला १०४-जहाँ पूर्व पूर्व पद क्रम से आगे के पदों के कारण हो, अथवा उत्तर उत्तर पद पूर्व पूर्व पदों के कारण हों, वहाँ कारणमाला होती है। जैसे, नीति से लक्ष्मी, लक्ष्मी से दान और दान से विपुल यश होता है।
यहाँ नीति, लक्ष्मी तथा दान क्रमशः उत्तरोत्तर कार्य के कारण हैं।