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कुवलयानन्दः neerinaraaaaaaaaaaaaarmilaranormapammammom.com स्यामेव भगवन्मुखसाम्यरूपेष्टप्राप्तिर्जायते, न सार्वकालिकीति दर्शितम् । कचि. दिष्टानवाप्तावपि तदवाप्तिभ्रमनिबन्धनाद्विच्छित्तिविशेषः । यथा वाबल्लालक्षोणिपाल ! त्वदहितनगरे संचरन्ती किराती
रत्नान्यादाय कीर्णान्युरुतरखदिराङ्गारशङ्काकुलाङ्गी । क्षिप्त्वा श्रीखण्डखण्डं तदुपरि मुकुलीभूतनेत्रा धमन्ती
श्वासामोदप्रसक्तैर्मधुकरपटलेधूमशङ्कां करोति ।। अत्र प्रभूताग्निसंपादनोद्योगात्तत्संपादनालाभेऽपि तल्लाभभ्रमो धूमभ्रमोपन्यासमुखेन निबद्धः ।। ६०॥
३९ समालङ्कारः समं स्याद्वर्णनं यत्र द्वयोरप्यनुरूपयोः ।
स्वानुरूपं कृतं सम हारेण कुचमण्डलम् ॥ ९१ ॥ प्रथमविषमप्रतिद्वन्द्वीदं समम् । यथा वा
कौमुदीव तुहिनांशुमण्डलं जाह्नवीव शशिखण्डमण्डनम् ।
पश्य कीर्तिरनुरूपमाश्रिता त्वां विभाति नरसिंहभूपते !॥ कहीं इष्टप्राप्ति न होने पर भी इष्टप्राप्ति के भ्रम का वर्णन होने पर विशेष चमत्कार पाया जाता है । जैसे निम्नपद्य में___ कोई कवि बल्लालनरेश की प्रशंसा कर रहा है :-हे बल्लालनामक भूपति, तुम्हारे शत्रुओं के भग जाने के कारण उजड़े शत्रुनगरों में घूमती हुई कोई भीलनी इधर-उधर बिखरे रत्नों को भ्रान्ति से खैर की लकड़ी के जलते अंगारे समझकर उन पर चन्दन के टुकड़े डालकर आँखें बन्दकर उसपर मुँह से फूंकती हुई, निःश्वास की सुगन्ध के कारण आये हुए भौंरों से धुएँ की भ्रान्ति करती है। __यहाँ प्रचुर अग्नि का लाभ प्राप्त करने के लिए किए गए प्रयत्न से अग्नि की प्राप्ति नहीं होते हुए भी धुएँ के भ्रम के द्वारा अग्निलाभ का भ्रम निबद्ध किया गया है । (अतः यह भी एक प्रकार का विषम ही है।)
३९. सम अलंकार ९१-जहाँ दो अनुरूप पदार्थों का वर्णन एक साथ किया जाय, वहाँ सम अलंकार होता है। जैसे, हार ने इस नायिका के कुचमण्डल को अपने योग्य निवासस्थान वना लिया है।
सम का यह भेद विषम अलंकार के प्रथम प्रकार का प्रतिद्वद्वी है। अथवा जैसे
हे नरसिंहभूपति, यह कीर्ति अपने योग्य तुम्हारा आश्रय पाकर ठीक वसे ही सुशोभित हो रही है, जैसे चन्द्रिका चन्द्रबिम्ब का आश्रय पाकर या गंगा महादेव का आश्रय पाकर।