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समालङ्कारः
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चित्रं चित्रं बत बत महच्चित्रमेतद्विचित्रं
जातो देवाचितघटनासंविधाता विधाता । यन्निम्बानां परिणतफलस्फीतिरास्वादनीया ।
यञ्चैतस्याः कवलनकलाकोविदः काकलोकः ।। पूर्व स्तुतिपर्यवसायि; इदं तु निन्दापर्यवसायीति भेदः ।। ६१ ॥
सारूप्यमपि कार्यस्य कारणेन समं विदुः ।
नीचप्रवणता लक्ष्मि ! जलजायास्तवोचिता ॥ ९२ ॥ इदं द्वितीयविषमप्रतिद्वन्द्वि समम् । यथा वा
दवदहनादुत्पन्नो धूमो घनतामवाप्य वर्षैस्तम् ।
यच्छमयति तद्युक्तं सोऽपि हि दवमेव निर्दहति ।। यथा वा
आदौ हालाहलहुतभुजा दत्तहस्तावलम्बो
बाल्ये शम्भोनिटिलमहसा बद्धमैत्रीनिरूढः । प्रौढो राहोरपि मुखविषेणान्तरङ्गीकृतो यः
सोऽयं चन्द्रस्तपति किरणैर्मामिति प्राप्तमेतत् ।। अथवा जैसे
आश्चर्य है, बहुत बड़ा आश्चर्य है कि ब्रह्मा दैवयोग से योग्य घटना (उचित मेल) कराने वाला है। पहले तो नीम के पके फलों की समृद्धि का आस्वाद करना है, और दूसरे उसको खाने की कला में चतुर कौए हैं-यह ब्रह्मा की उचित मेल करने की विधि को पुष्ट करता है।
इन दो उदाहरणों में यह भेद है कि प्रथम उदाहरण में सम अलंकार राजा की स्तुति में पर्यवसित हो रहा है, दूसरे उदाहरण में वह कौए व नीम की निन्दा में पर्यवसित हो रहा है।
९२-जहाँ कारण तथा कार्य में अनुरूपता हो, वह सम अलंकार का दूसरा भेद है, जैसे, हे लघिम, जल से उत्पन्न होने वाली (मूर्ख से उत्पन्न होने वाली) तेरे लिए नीच के प्रति आसक होना ठीक ही है।
यह दूसरे प्रकार के विषम का प्रतिद्वन्द्वी सम का दूसरा प्रकार है। अथवा जैसे
दवाग्नि से उत्पन्न धुओं बादल बन कर उसी दवाग्नि को बुझा देता है, यह ठीक ही है, क्योंकि वह दवाग्नि भी तो दव (वन) से पैदा होकर उसे (वन को) ही जला देती है।
अथवा जैसे
कोई विरहिणी चन्द्रमा की निन्दा करती कह रही है:-'यह चन्द्रमा पहले (बचपन में)विष की अग्नि के द्वारा (समुद्र में) सहारा दिया गया, बाद में बचपन में भगवान् महादेव के ललाट की अग्नि से मित्रता करके रहा, उसके बाद प्रौढ होने पर ...
११ कुव०