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अधिकालङ्कारः
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मित्रालादं कर्तुं मित्राय द्रुह्यति प्रतापोऽपि ॥ ४ ॥
४१ अधिकालङ्कारः अधिकं पृथुलाधारादाधेयाधिक्यवर्णनम् ।
ब्रह्माण्डानि जले यत्र तत्र मान्ति न ते गुणाः॥९५॥ अत्र 'यत्र महाजलौघेऽनन्तानि ब्रह्माण्डानि बुद्बुदकल्पानि' इत्याधारस्यातिविशालत्वं प्रदर्श्य तत्र 'न मान्ति' इत्याधेयानां गुणानामाधिक्यं वर्णितम् । यथा वा (माघे १।२३)युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो जगन्ति यस्यां सविकाशमासत । तनौ ममुस्तत्र न कैटभद्विषस्तपोधनाभ्यागमसम्भवा मुदः ।। ६५॥
व्यक्तियों के मुख को मलिन बनाने के लिए, समस्त संसार को निर्मल बना रही है, और आपका प्रताप मित्रों को सुख देने के लिए ही मित्र (सूर्य) से शत्रुता कर रहा है-तेज से सूर्य की होड कर रहा है। . यहाँ दुष्टमुखमलीनीकरण रूप कार्य के लिए, जगद्विमलीकरण विपरीत प्रयत्न है, ऐसे ही मित्रसुखविधान के लिए मित्रद्रोह भी विपरीत प्रयत्न है, इसलिए विचित्र अलंकार है। इस उदाहरण के उत्तरार्ध में विचित्र अलंकार दूसरे 'मित्र' के दूधर्थप्रयोग (श्लेष) पर आरत है।
४१. अधिक ९५-जहाँ आधार अत्यधिक विशाल हो, किंतु फिर भी कवि (अपनी प्रतिभा के कारण) आधेय पदार्थ का वर्णन इस ढंग से करे कि वह आधार से अधिक बताया जाय, वहाँ अधिक अलंकार होता है । यथा , हे राजन् जिस महासमुद्र के जल में समस्त (अनेकों) ब्रह्माण्ड समाये हुए हैं वहाँ तुम्हारे गुण नहीं समा पाते।
इस उदाहरण में राजा के गुणों की अधिकता व्यंजित करना कवि का अभीष्ट है । यहाँ गुण आधेय हैं' जल आधार । जल इतना विशाल (पृथुल) है कि उस अनन्त महाजलौघ (जल के महान् समूह) में अनन्त ब्रह्माण्ड बुबुद् के समान दिखाई पड़ते हैं । कवि ने इस उक्ति के द्वारा जल की विशालता का संकेत किया है, पर इसका संकेत करने पर भी '(तुम्हारे गुण) नहीं समाते' इस उक्ति के द्वाराआधेय-राजा के गुणों-की अधिकता वर्णित की है। इस प्रकार यहाँ अधिक अलंकार है । अथवा जैसे,
प्रस्तुत पद्य शिशुपालवध के प्रथम सर्ग से उद्धृत है । देवर्षि नारद के आने पर श्रीकृष्ण को जो अनुपम आनन्द होता है, उसका वर्णन किया जा रहा है । कैटभदैत्य के मारने वाले उन विष्णुरूप कृष्ण के जिस शरीर में प्रलयकाल के समय अपने आपमें समेटे हुए समस्त लोक मजे से समाविष्ट हो जाते थे, उसी शरीर में देवर्षि नारद के आगमन से उत्पन्न आनन्द न समा पाया।
यहाँ कृष्ण का शरीर आधार है, आनन्द आधेय। प्रलयकाल में समस्त लोकों का विष्णु के शरीर में समाविष्ट हो जाना, कृष्ण के शरीर (आधार) की विशालता का द्योतक है। इतना होने पर भी नारदागमनजनित प्रसन्नता (आधेय) की अधिकता का वर्णन करने के कारण अधिक अलंकार है। इसी उदाहरण में कृष्ण के लिए 'कैटभद्विषः' विशेष्य