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विषमालङ्कारः
अनिष्टस्याप्यवाप्तिश्च तदिष्टार्थसमुद्यमात् ।
भक्ष्याशयाऽहिमञ्जूषां दृष्ट्वाखुस्तेन भक्षितः ॥ ३०॥ .. इष्टार्थमुद्दिश्य किंचित्कारब्धवतो न केवलमिष्टस्यानवाप्तिः, किंतु ततोऽनिष्ट
स्यापि प्रति लम्भश्चेत्तदपि विषमम् । यथा भक्ष्यप्रेप्सया सपेटिकां दृष्ट्वा प्रविष्टस्य मूषकस्य न केवलं भक्ष्यालाभः, किंतु स्वरूपहानिरपीति । यथा वा
गोपाल इति कृष्ण ! त्वं प्रचुरक्षीरवाछया ।
श्रितो मातृस्तनक्षीरमप्यलभ्यं त्वया कृतम् । इदमर्थावाप्तिरूपेष्टार्थसमुद्यमादिष्टानवाप्तावनिष्टप्रतिलम्भे चोदाहरणम् । अनर्थपरिहारार्थरूपेष्टार्थसमुद्यमात् । तदुभयं यथासे कोई भेद नहीं जान पड़ता, इसी शंका को मिटाने के लिए कह रहे हैं।) कार्य तथा कारण के निवर्त्य-निवर्त्तक भाव होने पर पाँचवीं विभावना होती है, जब कि कार्य तथा कारण के विरोधी गुणों के होने पर विषम अलंकार होता है, यह दोनों का भेद है। टिप्पणी-इस दूसरे विषम का एक उदाहरण यह है :
सद्यः करस्पर्शमवाप्य चित्रं रणे रणे यस्य कृपाणलेखा।
तमालनीला शरदिन्दुपांडु यशस्त्रिलोकाभरणं प्रसूते ॥ ९०-(विषम का तीसरा भेद) जहाँ किसी इष्टार्थ प्राप्ति के लिए किये प्रयत्न से अनिष्ट प्राप्ति हो, वह तीसरा विषम है, जैसे भोजन (खाद्य) की इच्छा से सर्पपेटी को देखकर उसमें प्रविष्ट चूहा सर्प के द्वारा खा लिया गया।
इष्टार्थ की प्राप्ति के लिए किसी काम को करने वाले व्यक्ति को जहाँ केवल इष्टप्राप्ति का अभाव ही न हो, किन्तु उससे अनिष्टप्राप्ति भी हो वहाँ विषम का तीसरा भेद होता है। जैसे खाचप्राप्ति की इच्छा से पेटी को देखकर उसमें धुसे चूहे को न केवल भच्यालाभ (भक्ष्य की अप्राप्ति) हुवा, अपितु स्वयं अपने शरीर की भी हानि हो गई।
टिप्पणी-अप्पय दीक्षित ने रुय्यक के ही मतानुसार तीन प्रकार का विषम माना है । भेद यह है कि रुय्यक का तृतीय भेद दीक्षित का प्रथम भेद है, रुय्यक का प्रथम, द्वितीय, दीक्षित का द्वितीय, तृतीय।
'तत्र कारणगुणप्रकमेण कार्यमुत्पद्यत इति प्रसिद्धौ यद्विरूपं कार्यमुत्पद्यमानं दृश्यते तदेकं विषमम् तथा कंचिदर्थ साधयितुमुद्यतस्य न केवलं तस्यार्थस्याप्रतिलम्भो यावदनप्राप्तिरपीति द्वितीयं विषमम् । अत्यन्ताननुरूपसंघटनयोर्विरूपयोश्च संघटनं तृतीयं विषमम् । अननुरूपसंसर्गो हि विषमम् ।' ( अलंकारसर्वस्व पृ० १६५)
अथवा जैसे
कोई भक्त कृष्ण से कह रहा है, हे कृष्ण, हमने इसलिए तुम्हारी आराधना की कि तुम गोपाल हो, अतः हमें प्रचुर दुग्ध मिलेगा, किन्तु तुमने तो (हमें मोक्ष प्रदान कर) हमारे लिए माता का दुग्धपान भी अलभ्य कर दिया।
यहां इष्ट अर्थ की प्राप्ति के लिए किये उद्यम से इष्ट की अप्राप्ति तथा अनिष्ट की प्राप्ति का उदाहरण है। जहाँ अनर्थ का परिहार तथा इष्ट अर्थ की प्राप्ति दोनों का उद्यम पाया जाय, उसका उदाहरण निम्न है :