________________
११८
कुवलयानन्दः paramanararamoamariomorrormomamarm
अत्र 'इयम्' इति नलिनीव्यक्तिविशेषनिर्देशेन 'दीपिकायास्त टे' इत्यनेन च वाच्याथेस्य प्रस्तुतत्वं स्पष्टम् । प्रस्तुतान्तरद्योतनं चोत्तरार्धे स्वयमेव कविनाऽऽ. विष्कृतम् ।
अत्राद्योदाहरणयोरन्यापदेशध्वनिमाह लोचनकारः-'अप्रस्तुतप्रशंसायां वाच्यार्थोऽस्तुतत्वादवर्णनीयः' इति । तत्राभिधायामपयेवसितायां तेन प्रस्तुतार्थव्यक्तिरलङ्कारः । इह तु वाच्यस्य प्रस्तुतत्वेन तत्राभिधायां पर्यवसितायामर्थसौन्दर्यबलेनाभिमतार्थव्यक्तिर्ध्वनिरेवेति । वस्तुतस्तु-अयमप्यलङ्कार एव न ध्वनिरिति व्यवस्थापितं चित्रमीमांसायाम् | तृतीयोदाहरणस्य त्वलङ्कारत्वे कस्यापि न विवादः । उक्तं हि ध्वनिकृता ( ध्वन्यालोके २।२४ )
इस पद्य में 'कमलिनीवृत्तान्त' तथा 'आम्रलतावृत्तान्त' प्रस्तुत हैं (अप्रस्तुत नहीं), क्योंकि कमलिनी आम्रलतापरक वाच्यार्थ 'इयं' सर्वनाम के द्वारा नलिनीरूप व्यक्तिविशेष के निर्देश के कारण तथा 'दीर्घिकायास्तटे' इस प्रस्तुतवाची पद के कारण प्रस्तुत सिद्ध होता है। इस प्रस्तुत से अन्य प्रस्तुत (नायिकावृत्तान्त) की व्यंजना हो रही है, यह कवि ने स्वयं ही उत्तरार्ध में स्पष्ट कर दिया है।
(हम देखते हैं कि अप्पयदीक्षित ने प्रस्तुतांकुर के प्रकरण में तीन उदाहरण दिये हैं। इनमें अन्तिम उदाहरण ('कोशद्वन्द्वमियं' इत्यादि) में कवि ने स्वयं ही अन्य प्रस्तुत अर्थ की व्यंजना का संकेत कर दिया है, अतः यहाँ स्पष्ट ही अलंकार हो जाता है, किन्तु प्रथम दो उदाहरणों में-'कस्त्वं भोः' आदि तथा 'अन्यासु तावदुपर्मदसहासु' आदि पद्यों मेंकवि ने व्यंग्यार्थ का कोई संकेत स्पष्टरूप से नहीं दिया है, अतः यहाँ ध्वनि ही मानना होगा-ऐसा कुछ विद्वानों का मत है । अप्पयदीक्षित इस मत से सहमत नहीं हैं । अतः लोचनकार के मत का उल्लेख कर उससे असहमति प्रदर्शित करते हैं।) . इन तीनों उदाहरणों में से प्रथम दो उदाहरणों में लोचनकार अभिनवगुप्त ने अन्यापदेशध्वनि मानी है । उनका कहना है कि 'अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार में वाच्यार्थ अप्रस्तुत होने के कारण कवि का वयंविषय नहीं होता, इसलिए वहाँ अभिधाशक्ति वाच्यार्थ की प्रतीति कराने पर इसलिये क्षीण नहीं हो पाती कि कवि की विवक्षा अप्रस्तुत पक्ष में नहीं होती, इसलिये अप्रस्तुत वाच्यार्थ के द्वारा प्रस्तुत की व्यंजना होती है, तथा यह व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ का पर्यवसान करने में सहायता देता है-फलतः प्रस्तुत व्यंग्यार्थ के अप्रस्तुत वाच्यार्थ के पोषक होने के कारण यहाँ (अप्रस्तुतप्रशंसावाले पक्ष में) अलंकारत्व ठीक बैठता है। किन्तु उक्त दोनों उदाहरणों में यह बात नहीं है । यहाँ वाच्यार्थ भी प्रस्तुत है, अतः उसके प्रस्तुत होने पर अभिधाशक्ति अपने अर्थ का बोध कराकर पर्यवसित हो जाती है, उसकी पुष्टि के लिये व्यंग्यार्थ की आवश्यकता नहीं होती, ऐसी दशा में व्यंग्यार्थ की प्रतीति प्रथम अर्थ के चमत्कार के कारण होती है, अतः यहाँ अलंकार न मानकर ध्वनि ही मानना चाहिए।' अप्पय दीक्षित इस मत से असहमत होकर कहते हैं:-जहाँ प्रस्तुत वाच्यार्थ के द्वारा प्रस्तुत व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो, यहाँ भी अलंकार ही होता है, ध्वनि नहीं, इस मत की प्रतिष्ठापना हम चित्रमीमांसा में कर चुके हैं।' जहाँ तक तीसरे उदाहरण का प्रश्न है उसके अलंकारत्व के विषय में कोई मतभेद नहीं है, क्योंकि उसे दोनों ही अलंकार मानते हैं । जैसा कि ध्वनिकार ने कहा है