________________
प्रस्तुताङ्कुरालङ्कारः
'शब्दार्थशक्त्याक्षिप्तोऽपि व्यङ्ग योऽर्थः कविना पुनः । यत्राविष्क्रियते स्वोक्त्या साऽन्यैवालंकृतिर्ध्वनेः ॥' इति ।
११६
mm
एतानि सारूप्यनिबन्धनान्युदाहरणानि संबन्धान्तरनिबन्धनान्यपि कथंचिद्वाच्यव्यङ्गन्ययोः प्रस्तुतत्व लम्भनेनोदाहरणीयानि । दिङ्मात्रमुदाह्रियते - रात्रिः शिवा काचन संनिधत्ते विलोचने ! जाग्रतमप्रमत्ते । समानधर्मा युवयोः सकाशे सखा भविष्यत्यचिरेण कश्चित् ॥
अत्र शिवसारूप्यमिव तदेकदेशतया तद्वाच्यं ललाटलोचनमपि शिवरात्रिमाहात्म्यप्रयुक्तत्वेन वर्णनीयमिति तन्मुखेन कृत्स्नं शिवसारूप्यं गम्यम् |
यथा वा
वहन्ती सिन्दूरं प्रबलकबरी भारतिमिर
त्वषां वृन्दैर्बन्दीकृतमिव नवीनार्ककिरणम् । तनोतु क्षेमं नस्तव वदनसौन्दर्यलहरी - परीवाहस्रोतःसरणिरिव सीमन्तसरणिः ॥
'जहाँ कवि' शब्दशक्ति अथवा अर्थशक्ति के द्वारा आक्षिप्त व्यंग्यार्थ को पुनः अपनी उक्ति से प्रकट कर दे, वहाँ ध्वनि से भिन्न अन्य ही अलंकार होता है ।'
टिप्पणी- अप्पयदीक्षित की चित्रमीमांसा केवल अतिशयोक्ति अलंकार के प्रकरण तक मिलती है, अतः प्रस्तुत वाच्यार्थ के द्वारा प्रस्तुत व्यंग्यार्थप्रतीति में ध्वनि न होकर अलंकार ही है, यह मत चित्रमीमांसा के उपलब्ध अंश में नहीं मिलता ।
ऊपर के तीनों उदाहरण सारूप्यनिबन्धन के हैं। जिस तरह अप्रस्तुतप्रशंसा में सारूप्य सम्बन्ध के अतिरिक्त अन्य सम्बन्धों का भी निबंधन पाया जाता है, उसी तरह यहाँ भी प्रस्तुत वाच्य तथा प्रस्तुत व्यंग्य में अन्य संबंध का भी निबन्धन पाया जाता है । इनके दिङ्मात्र उदाहरण दिए जाते हैं ।
कोई शिवभक्त कवि अपने दोनों नेत्रों से कह रहा है। 'हे नेत्रद्वय, कोई उत्कृष्ट कल्यामय रात्रि आई है, अतः तुम अप्रमत्त होकर जगे रहना । इससे तुम्हारे समीप शीघ्र ही समान गुण वाला कोई मित्र हो जायगा ।
(यहाँ नेत्रों के द्वारा शिवरात्रि में जागरण करने पर भक्त शिवरूप हो जायगा तथा शिवरूप होने पर उसके ललाट पर तीसरा नेत्र और उदित हो जायगा यह अर्थ व्यंग्य है ।)
यहाँ कवि के लिए शिवसारूप्य प्राप्त करने के वर्णन की तरह ही शिवरात्रिमाहात्म्य के हेतु के कारण उसके द्वारा वाच्य ललाट नेत्र का भी वर्णन शिवरात्रि के माहात्म्य में प्रस्तुत हो जाता है, इसके द्वारा भक्त का समस्त शिवसारूप्य ( अन्य प्रस्तुत ) व्यञ्जित होता है । ( यहाँ एकदेश्य - एकदेशभावसंबंध का निबंधन पाया जाता है । )
अथवा जैसे—
देवी पार्वती के सीमन्त का वर्णन है । हे देवि, प्रबल केशपाश रूपी अन्धकार की कांति के समूह के द्वारा कैद की गई बालसूर्य की किरण के समान सिंदूर को धारण करती, तथा मुख के सौन्दर्य की लहरों के परीवाह ( जल निर्गममार्ग ) खोत के समान तुम्हारी सीमन्त-सरणि हमारे कल्याण का विधान करे ।