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कुवलयानन्दः
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आक्षेपोऽन्यो विधौ व्यक्ते निषेधे च तिरोहिते ।
गच्छ गच्छसि चेत्कान्त ! तत्रैव स्याज्जनिर्मम ॥ ७५ ॥
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यहाँ 'अपहृति' अलंकार का वारण करने के लिए 'अपहृतिभिन्नत्वे सति' कहा है। अपहृति में उपमानोपमेयभाव ( साधर्म्य ) होना आवश्यक है, आक्षेप में नहीं । रसिकरंजनीकार ने रुय्यक के मतानुसार आक्षेप के प्रकारों का संकेत किया है । सर्वप्रथम आक्षेप के दो भेद होते हैं:- -उक्त विषय तथा वक्ष्यमाणविषय। ये दोनों फिर दो दो तरह के होते हैं । उक्त विषय में कभी तो वस्तु का निषेध किया जाता है, कभी वस्तु कथन का । वक्ष्यमाण विषय में केवल वस्तु कथन का ही निषेध होता है; यह दो तरह का होता है -- कभी तो विशेष्यनिष्ठरूप में वक्ष्यमाण विषय का निषेध होता है, कभी अंश की उक्ति की जाती है तथा अंशान्तर वक्ष्यमाण विषय का निषेध किया जाता है । इस तरह आक्षेप चार तरह का होता है । ( दे० रसिकरंजनी पृ० १४९-५० तथा अलंकार सर्वस्य पृ० १४५ - १४६ ) ऊपर जिस उदाहरण को दीक्षित ने दिया है, वह उक्तविषय आक्षेप के प्रथम भेद का उदाहरण है, अन्य तीन भेदों के उदाहरण निम्न हैं:
१. प्रसीदेति ब्रूयामिदमसति कोपे न घटते, करिष्याम्येवं नो पुनरिति भवेदभ्युपगमः । न मे दोषोऽस्तीति श्वमिदमपि हि ज्ञास्यति मृषा, किमेतस्मिन्वक्तुं क्षममपि न वेद्मि प्रियतमे ॥
यहाँ 'प्रसीद' इस उक्ति का निषेध करने से इस बात की प्रतीति होती है कि वासवदत्ता का क्रोध शांत होगा तथा राजा उदयन पर अवश्य ही अनुग्रह हो जायगा । इस प्रकार यहाँ 'प्रसाद' रूप वस्तु के 'ब्रूयाम्' इस कथन का ही निषेध पाया जाता है, अतः उक्त विषय वस्तु कथन का निषेध किया गया है ।
२. सुभग विलम्बस्व स्तोकं यावदिदं विरहकातरं हृदयम् । संस्थाप्य भणिष्यामः अथवा घोरेषु किं भणिष्यामः ॥
यहाँ ‘भणिष्यामः' पद के द्वारा इस बात की सूचना की गई है कि नायिका किसी तरह अपने विरहकातर हृदय को शांत करके किसी तरह कुछ कह देगी, वह थोड़ी देर रुक जाय । इस प्रकार यहाँ सामान्य बात कही गई है। किंतु इसके बाद 'अथवा घोरेषु किं भणिष्यामः' के द्वारा यह बताया गया है कि तुमसे कहने की प्रतिज्ञा कर लेने पर भी विरहकथा नहीं कही जाती, क्योंकि मेरे लिए विरह अत्यन्तः दुःसह है, यहाँ तक कि वह मौत की शंका उत्पन्न कर रहा है । इस प्रकार विरहिणी ने इस विशेष उक्ति के द्वारा वक्ष्यमाणविषय का निषेध कर दिया है।
३. ज्योत्स्ना तमः पिकवचः क्रकचस्तुषारः क्षारो मृणालवलयानि कृतान्तदन्ताः । सर्व दुरन्तमिदमद्य शिरीषमृद्दी सा नूनमाः किमथवा हतजल्पितेन ॥
यहाँ कोई दूती नायक से विरहिणी नायिका की दशा का वर्णन कर रही है । वह 'शिरीषमृदी सा नूनम' तक इस बात का वर्णन कर चुकी है कि धिरहिणी नायिका के लिए चाँदनी अंधेरा हैं, कोकिल काकली आरा है, शीतल बर्फ घाव में नमक हैं, मृगाल के कड़ यमराज के दाढ़ हैं, इस तरह ये सभी पदार्थ उसके लिए दुःसह है वह नायिका सचमुच ही " " किन्तु इतना ही कह कर दूती रुक जाती है । इस प्रकार वह वक्ष्यमाणविषय के एक अंश का कथन कर चुकी है, शेष अंशांतर का निषेध करती कहती है - ' अथवा उस बुरी बात के कहने से क्या फायदा ?' इससे दूती यह व्यंजन करना चाहती है कि यदि अब भी नायक ने उसकी खबर न ली तो वह मर जायगी । यहाँ दूती ने कुछ अंश कह दिया है, कुछ वक्ष्यमाण अंशांतर का निषेध किया है ।
७५ - जहाँ बाहर से विधि का प्रयोग किया हो तथा उसके द्वारा स्वाभीष्ट निषेध छिपाया गया हो, वहाँ तीसरे प्रकार का आक्षेप होता है। जैसे ( कोई प्रवत्स्यत्पत्तिका