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आक्षेपालकारः
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निषेधो बाधितः सन्नर्थान्तरपर्यवसितः कचिद्विशेषमाक्षिपति स आक्षेपः । यथा दूत्या उक्तौ 'नाहं दूती' इति निषेधो बाधितत्वादाभासरूपः संघटनकालोचितकैतववचनपरिहारेण यथार्थवादित्वे पर्यवस्यन्निदानीमेवागत्य नायिकोजीवनीयेति विशेषमाक्षिपति । यथा वा
नरेन्द्रमौले ! न वयं राजसंदेशहारिणः ।
जगत्कुटुम्बिनस्तेऽद्य न शत्रुः कश्चिदीक्ष्यते ।। अत्र संदेशहारिणामुक्तौ 'न वयं संदेशहारिणः' इति निषेधोऽनुपपन्नः। संधिकालोचितकैतववचनपरिहारेण यथार्थवादित्वे पर्यवस्यन् सर्वजगतीपालकस्य तव न कश्चिदपि शत्रुभावेनावलोकनीयः, किन्तु सर्वेऽपि राजानो भृत्यभावेन 'संरक्षणीयाः' इति विशेषमाक्षिपति ।। ७४ ।। आक्षेप को न मान कर) आक्षेप का यह प्रकार मानते हैं-किसी उक्ति का केवल निषेध कर देना ही आक्षेप नहीं है, अपि तु जो निषेध किसी विशेष कारण से बाधित होकर किसी अन्य अर्थ की व्यंजना कराकर किसी विशेष भाव का आक्षेप करता है, उसे ही आक्षेप अलंकार का नाम दिया जा सकता है। उदाहरण के लिए, उक्त पद्य के उत्तरार्ध में 'नाहं दूती' यह निषेध बाधित है, क्योंकि वक्त्री वस्तुतः दूती है ही-इसलिये यह निषेध न हो कर निषेधाभास है, इसके द्वारा यह व्यंग्य प्रतीत होता है कि मैं बिलकुल सच कह रही हूँ, तुम दोनों का मिलन कराने के लिये झूठी बातें नहीं बना रही हूँ। यह व्यंग्योपस्कृत निषेध इस विशेष अर्थ का आक्षेप करता है कि तुम्हें अभी जाकर नायिका को जीवित करना है (अन्यथा नायिका को मर गई समझो)। टिप्पणी-यह उदाहरण रुय्यक के निम्न उदाहरण से मिलता है :
बालअ णाहं दूई तीऍ पिओ सित्ति जम्ह वावारो। सा मरह तुम अयसो एवं धम्मक्खरं भणिमो॥ (बालक नाहं दूती तस्याः प्रियोऽसीति नास्मद्वयापारः।
सा म्रियते तवायश एतद् धर्माक्षरं भणामः ॥) अथवा जैसेकोई दूत राजा से कह रहा है :-'राजश्रेष्ठ, हम राजसंदेश के वाहक दूत नहीं हैं। आप के लिए तो सारा संसार कुटुम्ब है, इसलिए आपका कोई शत्रु ही नहीं दिखाई देता।
इस उक्ति का वक्ता कोई संदेशवाहक दूत है, जब वह कहता है कि 'हम संदेशवाहक नहीं हैं तो यह निषेध बाधित दिखाई पड़ता है। अतः यहाँ निषेधाभास की प्रतीति होती है। इस प्रकार निषेध की उपपत्ति होने के कारण यहाँ प्रथम यह प्रतीति होती है कि दूत इस बात पर जोर देना चाहता है कि वह जो कुछ कह रहा है यथार्थ कह रहा है, केवल दोनों राजाओं में संधि कराने के लिए झूठी बातें नहीं बना रहा है। इस अर्थ से उपस्कृत निषेधाभास से यह अर्थ विशेष आक्षिप्त होता है कि 'राजन् , तुम तो समस्त पृथ्वी के पालनकर्ता हो, अतः तुम्हें किसी को अपना शत्रु नहीं समझना चाहिए, अपितु सभी राजाओं को अपना सेवक मान कर उनकी रक्षा करनी चाहिए।' टिप्पणी-आक्षेप का सामान्य लक्षण यह है :
अपहृतिभिवस्वे सति चमत्कारकारितानिषेधत्वम्-आक्षेपत्वम् ।