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कुवलयानन्दः
हेतुनामसमग्रत्वे कार्योत्पत्तिश्च सा मता।
अस्त्रैरतीक्ष्णकठिनैर्जगज्जयति मन्मथः ।। ७८ ॥ अत्र जगजये साध्ये हेतूनामस्त्राणामसमग्रत्वं तीक्ष्णत्वादिगुणवैकल्यम् । यथा वा
उद्यानमारुतोद्धृताश्चूतचम्पकरेणवः ।
उदस्रयन्ति पान्थानामस्पृशन्तो विलोचने । अत्र बाष्पोद्गमनहेतूनामसमग्रत्वं स्पर्शन क्रियावैकल्यम् । इमां विशेषोक्तिरिति दण्डी व्याजहार। यतस्तत्र प्रथमोदाहरणे मन्मथस्य महिमातिशयरूपो द्वितीयोदाहरणे चम्पकरेणूनामुद्दीपकतातिशयरूपश्च विशेषः ख्याप्यत इति । अस्माभिस्तु तीक्ष्णत्वादिवैकल्यमपि कारणविशेषाभावरूपमिति विभावना प्रदर्शिता ।। ७८ ॥
(दूसरी विभावना) ७४-विभावना का दूसरा भेद वह है, जहाँ किसी कार्य की उत्पत्ति के लिए आवश्यक समग्र कारणों में से किसी कारणविशेष के अभाव में ही कार्योत्पत्ति हो जाय, जैसे कामदेव तीचणता तथा कठिनता से रहित (पुष्प के) आयुधों से ही संसार को जीत रहा है।
यहाँ संसार के विजयरूप कार्य के लिए अस्त्रों का कारणत्व समग्ररूप में वर्णित नहीं किया गया है, क्योंकि मन्मथ के अस्त्रों में तीक्ष्णता तथा कठिनता का अभाव बताया गया है। (शत्रु को जीतने के लिए अस्त्रों का तीक्ष्ण व कठिन होना आवश्यक है, किन्तु यहाँ कोमल तथा कुंठित अस्त्र ही कार्योत्पत्ति करने में समर्थ हैं, अतः कारण की असमग्रता होने पर भी कार्योत्पत्ति वर्णित की गई है।)
अथवा जसे
(वसन्त ऋतु का वर्णन है) उपवन-वायु के द्वारा उड़ाई हुई आम तथा चम्पे की पराग-राशि प्रियावियुक्त पथिकों की आँखों का स्पर्श किये बिना ही उन्हें अश्रुयुक्त बना देती है।
यहाँ 'आम्रचम्पकरेणु' को अश्रु की उत्पत्ति का कारण बताया गया है, किन्तु पराग आँखों का स्पर्श किये बिना ही आँसू ला देता है, यह कारण की असमग्रता का अभिधान है। दण्डी ने इस प्रकार के कारण की असमग्रता से कार्योत्पत्ति वाली स्थिति में विशेषोक्ति अलंकार माना है। उनके मत से प्रथम उदाहरण में कामदेव की विशिष्ट महिमा का वर्णन किया गया है, दूसरे उदाहरण में चम्पकपराग की अत्यधिक उद्दीपकता वर्णित की गई है (अतः यहाँ विशेष्य के दर्शन के लिए गुणजातिक्रियादि की विकलता बताई गई है)। हमारे (दीक्षित के) मत से तीक्ष्णता आदि की विकलता भी कारण विशेष का अभाव ही है, अतः हमने यहाँ विभावना मानी है।
टिप्पणी-दण्डी के मतानुसार जहाँ विशेष्यदर्शन के लिए गुण-जाति-क्रियादि की विकलता बताई गई हो, वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है :
गुणजातिक्रियादीनां यत्र वैकल्यदर्शनम् । विशेष्यदर्शनायैव सा विशेषोतिरिष्यते ॥ ( काव्यादर्श )