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विशेषोक्त्यलङ्कारः
पूर्वोदाहरणयोः कारणस्य कार्यविरोधित्वं स्वाभाविकम् । इह तु श्रुतिप्रणयित्वस्यागन्तुकगुणप्रयुक्तमिति भेदः ॥ १॥
कार्यात् कारणजन्मापि दृष्टा काचिद्विभावना ।
यशः पयोराशिरभूत् करकल्पतरोस्तव ॥ ८२ ॥ यथा वा
जाता लता हि शैले जातु लतायां न जायते शैलः । संप्रति तद्विपरीतं कनकलतायां गिरिद्वयं जातम् ॥ २ ॥
३५ विशेषोक्त्यलङ्कारः कार्याजनिर्विशेषोक्तिः सति पुष्कलकारणे ।
हृदि स्नेहक्षयो नाभूत् स्मरदीपे ज्वलत्यपि ॥ ८३ ॥ (यहां यह विभावना 'श्रुतप्रणयिनोः' के श्लेष पर आरत है।)
इनमें पहले दो उदाहरणों में कारण का कार्य से विरुद्ध होना स्वाभाविक है, क्योंकि चन्द्रकिरणें ताप की, तथा सूर्योदय कुमुदिनी, नक्षत्र तथा पद्म संकोच के स्वभावतः विरोधी हैं। इस तीसरे उदाहरण में आंखों में 'श्रुतिप्रणयित्व' रूप आगन्तुक गुण के कारण हिंसा की विरोधिता पाई जाती है।
(छठी विभावना) - ८२-विभावना का एक (छठा) भेद वह भी देखा जाता है, जहां कार्य से कारण की उत्पत्ति हो, जैसे, हे राजन्, तुम्हारे हाथ रूपी कल्पवृक्ष से यश का क्षीर समुद्र पैदा हो गया।
('पयोधि' कल्पवृक्ष का वास्तविक कारण है, किंतु यहां उनके कार्य-कारण भाव को उलट कर कल्पवृक्ष को पयोधि' का कारण बना दिया गया है, अतः यह छठी विभावना है।)
टिप्पणी-पंडितराज जगन्नाथ ने दीक्षित के द्वारा उपन्यस्त विभावना के षट्पकार का खंडन किया है, क्योंकि सभी विभावना प्रकार प्रथम विभावना में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। 'तस्मादायेन प्रकारेण प्रकारान्तराणामालीढत्वात्षट् प्रकारा इत्यनुपपन्नमेव ।'
(रसगंगाधर पृ० ५८३ ) अथवा जैसे
लता ही पर्वत पर पैदा होती है, पर्वत कभी भी लता पर पैदा नहीं होता। लेकिन हमने आज ऐसा विपरीत आश्चर्य देखा है कि कनकलता (नायिका की अंगवल्ली) में दो पर्वत (कुचद्वय) पैदा हो गये हैं।
(यहां दो पर्वतों का लता पर पैदा होना कार्य से कारण का उत्पन्न होना है, अतः यह छठी विभावना का उदाहरण है। यह विभावना अतिशयोक्ति पर आश्रित है।)
३५. विशेषोक्ति अलंकार ८३-जहां प्रचुर कारण के होते हुए भी कार्योत्पत्ति न हो, वहां विशेषोक्ति अलंकार होता है । जैसे, कामदेव रूपी दीपक के जलते हुए भी हृदय में स्नेहरूपी स्नेह (तैल) समाप्त न हुआ।