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विरोधाभासालङ्कारः
अत्र गच्छेति विधिर्व्यक्तः । मा गा इति निषेधस्तिरोहितः । कान्तोद्देश्यदेशे निजजन्मप्रार्थनयाऽऽत्ममरणसंसूचनेन गर्भीकृतः ।
यथा बा
न चिरं मम तापाय तव यात्रा भविष्यति । यदि यास्यसि यातव्य मलमाशङ्कयापि ते ॥
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अत्रापि 'न चिरं मम तापाय' इति स्वमरणसंसूचनेन गमननिषेधो गर्भीकृतः ॥ ३३ विरोधाभासालङ्कारः
अभासत्वे विरोधस्य विरोधाभास इष्यते ।
विनापि तन्वि ! हारेण वक्षोजौ तव हारिणौ ॥ ७६ ॥ अत्र 'हाररहितावपि हारिणौ हृद्यौ' इति श्लेषमूलको विरोधाभासः ।
विदेश जाने के लिए प्रस्तुत नायक से कह रही है ) हे प्रिय, यदि तुम जाते ही हो तो जाओ, मेरा जन्म भी वहीं हो ( जहाँ तुम जा रहे हो ) ।
यहाँ नायिका ने स्पष्ट रूप से 'गच्छ' इस विधि वाक्य का प्रयोग किया है, किंतु नायिका को उसका जाना पसंद नहीं तथा उसने निषेध रूप अपने स्वाभीष्ट अर्थ 'मत जा' ( मा गाः ) को छिपा दिया है। इस वाक्य में नायिका ने यह प्रार्थना की है कि उसका जन्म भी उसी देश में हो, जहाँ प्रिय जा रहा है । इस प्रार्थना के द्वारा नायिका ने अपने मरण की सूचना व्यंजित की है - कि 'तुम्हारे जाने के बाद मेरा मरण अवश्यम्भावी है', तथा इससे निषेध की व्यंजना होती है ।
अथवा जैसे
(कोई प्रवत्स्यत्पतिका विदेशाभिमुख नायक से कह रही है ।) 'हे प्रिय, तुम्हारी यात्रा मुझे अधिक देर तक संतप्त न करेगी। अगर तुम आभोगे तो जाभो, तुम्हें मेरे विषय में कोई शंका नहीं करना चाहिए ।'
यहाँ 'तुम्हारी यात्रा मुझे अधिक देर तक संतप्त न करेगी' इस उक्ति के द्वारा नायिका ने अपने मरण की सूचना देकर नायक के विदेशगमन का निषेध व्यंजित किया है ।
३३. विरोधाभास अलंकार
७६ - जहां दो उक्तियों में आपाततः विरोध दृष्टिगोचर हो, ( किंतु किसी प्रकार उसका परिहार हो सके ), वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है । जैसे, (कोई नायक नायिका से कह रहा है) हे सुंदरि, तेरे स्तन हार के बिना भी हार वाले (हारिणौ ) ( विरोधपरिहार, सुंदर ) हैं ।
यहाँ 'हार के बिना भी हार वाले हैं' यह विरोध प्रतीत होता है, वस्तुतः कवि का अभिप्राय यह है कि 'स्तन हार के बिना भी सुंदर ( हारिणौ ) हैं। इस प्रकार श्लेषमूलक विरोधाभास है । अथवा, जैसे
टिप्पणी- विरोधाभास श्लेषरहित भी होता है । यह रुय्यक के मतानुसार दस तरह का होता है - जाति, गुण, क्रिया तथा द्रव्य का क्रमशः अपने तथा अपने परवर्ती जात्यादि, गुणादि,