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कुवलयानन्दः
भिहितेन कारणं व्यङ्गथं प्रदश्य तत्र लक्षणं लक्ष्यनाम च क्लिष्टगत्या योजितम् । वाच्यादन्येन प्रकारेण व्यङ्गयेनोपलक्षितं सद्यदभिधीयते तत् पयोयेण प्रकारान्तरेण व्यङ्गयेनोपलक्षितमुक्तमिति सर्वोऽप्ययं क्लेशः किमर्थ इति न विद्मः। प्रदर्शितानि हि गम्यस्यैव रूपान्तरेणाभिधाने बहुन्युदाहरणानि | 'चक्राभिघात. प्रसभाज्ञयैव' इति प्राचीनोदाहरणमपि स्वरूपेण गम्यस्य भगवतो रूपान्तरेणाभिधानसत्त्वात्सुयोजमेव । यत्तु यत्र राहुशिरश्छेदावगमनं तत्र प्रागुक्तरीत्या प्रस्तुतार एव । प्रस्तुतेन च राहोः शिरोमात्रावशेषेणालिङ्गनबन्ध्यत्वाद्यापादनरूपे वाच्ये भगवतो रूपान्तरे उपपादिते, तेन भगवतः स्वरूपेणावगमनं .पर्यायोक्तस्य विषयः ।। ६८।। प्रयुक्त कार्य के द्वारा कारण रूप व्यंग्य की प्रतीति दिखाकर वहाँ लक्षण तथा लक्ष्य (पर्यायोक्त इस अलंकार का) नाम की क्लिष्टरीति से योजना की गई है। जो अर्थ वाच्य से भिन्न प्रकार से अर्थात् व्यंग्य के द्वारा उपलक्षित (विशिष्ट) बना कर कहा जाता है, वही अर्थ पर्याय अर्थात् प्रकारान्तर व्यंग्य के द्वारा उपलक्षित विशिष्ट रूप में उक्त होने के कारण पर्यायोक्त होता है । लोचनकार की इस सारी क्लिष्टकल्पना का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। वस्तुतः यह रूपान्तर गम्य (व्यंग्यार्थ) का ही होता है, इस विषय में हमने अनेकों उदाहरण दे दिये हैं। 'चक्राभिघात' इत्यादि प्राचीन उदाहरण में भी स्वरूपतः गम्य भगवान् विष्णु का रूपान्तर (भंग्यंतर) के द्वारा अभिधान किया गया है। जहाँ तक इस पद्य के द्वारा 'राहु के शिर के कटने' (राहुशिरश्छेद)रूप प्रस्तुत अर्थ की प्रतीति होती है, इस अंश में प्रस्तुतांकुर अलंकार होगा (क्योंकि प्रस्तुत आलिंगन. शून्यत्वादि विशिष्टं रतोत्सवरूप कार्य के द्वारा प्रस्तुत राहुशिरश्छेद रूप कारण की प्रतीति हो रही है)। साथ ही यहाँ प्रस्तुत-राहुशिरोमात्रावशेष (राहु के केवल सिर ही बचा रहा है) के द्वारा आलिंगनबन्ध्यत्व को प्राप्त कराने में साधन रूप वाच्य में भगवान् विष्णु के रूपांतर की योजना की गई है, तथा इस रूपांतर के द्वारा भगवान् विष्णु के स्वरूप की व्यंजना होती है, अतः यहाँ पर्यायोक्त अलंकार है। टिप्पणी-लोचनकार ने पर्यायोक्त का लक्षण यह दिया है:
पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते ।
वाच्यवाचकवृत्तिभ्यांशून्येनावगमात्मना ॥ (दे० लोचन पृ० ११७ ) लोचनकार ने इसका उदाहरण यह किया है
शत्रुच्छेदे दृढेच्छस्य मुनेरुत्पथगामिनः।
रामास्यानेन धनुषा दर्शिता धर्मदेशना ॥ यहाँ भीष्म का प्रताप परशुराम के प्रभाव को भी चुनौती देने वाला है, यह प्रतीति होती है। यह 'दर्शिता धर्मदेशना' इस अभिधीयमानकार्य के द्वारा अभिहित की गई है। इस प्रकार अभिनवगुप्त ने कार्य रूप वाच्य के द्वारा कारण रूप व्यंग्य दिखाकर पर्यायोक्त के लक्षण को घटित कर दिया है।
लोचनकार का यह मत यों है :
अत एव पर्यायेण प्रकारांतरेणावगमात्मना व्यंग्येनोपलक्षितं सद्यदभिधीयते तदभिधीयमानमुक्तमेव सत्पर्यायोक्तमित्यभिधीयत इति लक्षणपदम् , पर्यायोक्तमिति लक्ष्यपदम् ।
(लोचन पृ० ११८)