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व्याजस्तुत्यलङ्कारः
भिन्नविषयत्वे निन्दया स्तुत्यभिव्यक्तिर्यथाकस्त्वं वानर !, रामराजभवने लेखार्थसंवाहको,
यातः कुत्र पुरागतः स हनुमान्निर्दग्धलङ्कापुरः ?-1 बद्धो राक्षससूनुनेति कपिभिः संताडितस्तर्जितः
सव्रीडात्तपराभवो वनमृगः कुत्रेति न ज्ञायते ॥ अत्र हनुमन्निन्दया इतर्वानरस्तुत्यभिव्यक्तिः ।
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टिप्पणी- उपर्युक्त दो प्रकार की व्याजस्तुति से इतर व्याजस्तुति भेदों के मानने का पंडितराज ने खंडन किया है ।
'एवं स्थिते कुवलयानन्दकर्ता स्तुतिनिन्दाभ्यां वैयधिकरण्येन निन्दास्तुस्योः स्तुतिनिन्दयोasar मे प्रकार चतुष्टयं व्याजस्तुतेर्यदधिकमुक्तं तदपास्तम् ।' ( रसगंगाधर पृ० ५६१ )
साथ ही वे दीक्षित के द्वारा उदाहृत 'अर्ध दानववैरिणा भिचाटनम् ' पद्य को व्याजस्तुति का उदाहरण नहीं मानते। क्योंकि यहाँ 'साधु दूति' इत्यादि पद्य में जिस तरह साधुकारिणीत्व बाधित हो कर स्तुति रूप वाच्य से निंदा रूप व्यंग्य की प्रतीति कराने में समर्थ है, वैसे राजा के लिए प्रयुक्त सर्वज्ञत्व तथा अधीश्वरत्व बाधित नहीं जान पड़ता । अतः इस पद्य से राजा की उपालंभरूप निंदा की प्रतीति ही नहीं होती ।
'साधुदूति पुनः साधु' इति पद्ये साधुकारिणीत्वमिव नास्मिन्पद्ये सर्वज्ञत्वमधीश्वरत्वं च विद्युद्भङ्गुर प्रतिभमिति शक्य वक्तुम् । उपालम्भरूपायाः निन्दाया अनुत्थानापत्तेः प्रतीतिविरोधाच्चेति सहृदयैराकलनीयं किमुक्तं द्रविडपुङ्गवेनेति । ( रसगंगाधर पृ० ५६३ )
यहाँ रसगंगाधरकार ने 'द्रविडपुंगवेन' कह कर दीक्षित की मूर्खता ( पुंगवत्व ) पर कटाक्ष किया है। नागेश ने रसगंगाधर की टीका में दीक्षित के मत की पुनः स्थापना की है। वे बताते हैं कि इस पद्य में वक्तृवैशिष्टय आदि के कारण राजस्तुति से राजनिंदा की प्रतीति होती ही है, अतः सर्वशत्व तथा अधीश्वरत्व में विद्युद्भङ्गुर प्रतिभत्व पाया ही जाता है ।
'अतिचिरकालं कृतया सेवया दुःखितस्य ततोऽप्राप्तधनस्य भिक्षो राजसेवां त्यक्तुमिछत ईदृशवाक्ये वक्तृवैशिष्ट्यादिसहकारेणापातप्रतीयमानस्तुतेर्निन्दापर्यवसायितया कुरप्रतिभत्वमस्त्येवेति सम्यगेवोक्तं द्रविडशिरोमणिना ।' (गुरुमर्म प्रकाश - वही पृ० ५६३ )
विद्युद्भ
व्याजस्तुति में यह भी हो सकता है कि एक व्यक्ति की निन्दा या स्तुति से दूसरे व्यक्ति की स्तुति या निन्दा व्यञ्जित होती हो । इस प्रकार भिन्नविषयक निन्दा से स्तुति की व्यञ्जना का उदाहरण निम्न पद्य है :
( लंका के राक्षस अङ्गद से हनुमान् के विषय में पूछ रहे हैं और अङ्गद हनुमान् की निन्दा कर अन्य वानरों की प्रशंसा व्यञ्जित कर रहा है । )
'हे वानर, तुम कौन हो,' 'मैं राजा राम के भवन में लेखादि संदेश का वाहक (दूत) हूँ ।' 'वह हनुमान् जो यहाँ पहले आया था और जिसने लंकापुरी को 'जलाया था, कहाँ गया ?"
'उसे रावण के पुत्र मेघनाद ने पाश में बाँध लिया था, इसलिए अन्य वानरों ने उसे फटकारा और पीटा, लज्जित होकर वह बंदर कहाँ गया, इसका कुछ भी पता नहीं ।' यहाँ हनुमान् की निन्दा वाच्यार्थ है, इसके द्वारा अन्य वानरों की स्तुति की व्यंजना हो रही है ।