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व्याजनिन्दा | ननु यत्रान्यस्तुत्याऽन्यस्तुतेरन्यनिन्दयाऽन्यनिन्दायाश्च प्रतीतिस्तत्र व्याजस्तुति व्याजनिन्दालङ्कारयोरभ्युपगमे स्तुतिनिन्दारूपा प्रस्तुतप्रशंसोदाहरणेष्वप्रस्तुतप्रशंसा न वक्तव्या । तेषामपि व्याजस्तुति - व्याजनिन्दाभ्यां क्रोडीकारसंभवादिति चेत्, - उच्यते; यत्राप्रस्तुतवृत्तान्तात् स्तुतिनिन्दारूपात्तत्सरूपः प्रस्तुतवृत्तान्तः प्रतीयते, 'अन्तरिद्राणि भूयांसि' इत्यादौ, तत्र लब्धावकाशा सारूप्यनिबन्धनाऽप्रस्तुतप्रशंसा, अत्रापि वर्तमाना निवारयितुं शक्या । अन्यस्तुत्याऽन्यस्तुतिरन्यनिन्दयाऽन्यनिन्देत्येवं व्याजस्तुति - व्याजनिन्दे अपि संभवतश्चेत्, - कामं ते अपि संभवेताम् ; न त्वस्याः परित्यागः । यद्यपि 'विधि - रेव विशेषगर्हणीय' इति श्लोके विधिनिन्दया तन्मूलकाकनिन्दया चाविशेषज्ञस्य प्रभोस्तेन च विद्वत्समतया स्थापितस्य मूर्खस्य च निन्दा प्रतीयत इति तत्र सारूप्यनिबन्धनाऽप्रस्तुतप्रशंसाप्यस्ति तथापि सैव व्याजनिन्दामूलेति प्रथमोपस्थिता सापि तत्र दुर्वारा, एवं च व्याजनिन्दामूलकव्याजनिन्दारूपेयमप्रस्तुतप्रशंसेति चमत्कारातिशयः एवमेव व्याजस्तुतिमूलकव्याजस्तुतिरूपाऽप्यप्रस्तुतप्रशंसा दृश्यते ।
व्याजनिन्दालङ्कारः
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प्रकरण में पूर्वपक्षी को एक शंका होती है: - 'जहाँ एक व्यक्ति की स्तुति से दूसरे की स्तुति व्यंजित होती है वहाँ व्याजस्तुति अलंकार माना जाता है तथा जहाँ एक व्यक्ति की निंदा से दूसरे की निंदा व्यंजित होती है वहाँ व्याजनिंदा अलंकार' - तो फिर स्तुतिनिंदा रूप अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार के उदाहरणों में भी यही अलंकार होगा, फिर वहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वे भी व्याजस्तुति तथा व्याजनिंदा
अन्तर्भूत हो जायँगे।' इस शंका का समाधान सिद्धांतपक्षी यों करता है: - 'जहाँ स्तुति या निंदारूप अप्रस्तुतवृत्तान्त के द्वारा उसके समान ( तुल्य) ही स्तुति या निंदारूप प्रस्तुतवृत्तान्त व्यंजित होता हो, जैसे 'अन्तरिकद्राणि भूयांसि' इत्यादि उदाहरण मेंवहाँ सारूप्यनिबंधना अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार अवश्य होगा, साथ ही इन दोनों स्थलों में ( व्याजस्तुति के पंचम भेद तथा व्याजनिंदा के उदाहरणों में ) भी अप्रस्तुतप्रशंसा का अस्तित्व निषिद्ध नहीं किया जा सकता। यदि पूर्वपक्षी पुनः यह शंका करे कि यहाँ अन्यस्तुति से अन्यस्तुति तथा अन्यनिंदा से अन्यनिंदा की व्यंजना के कारण व्याजस्तुति या व्याजनिंदा अलंकार भी होगा, तो कोई बुरा नहीं, वे अलंकार भी माने जायँगे, इससे अप्रस्तुतप्रशंसा का त्याग नहीं हो जाता । यद्यपि 'विधिरेष विशेषगर्हणीयः' इत्यादि पद्य
ब्रह्मा की निंदा के द्वारा कौवे की निंदा व्यंजित होती है तथा उन दोनों के द्वारा मूर्ख स्वामी तथा उसके द्वारा विद्वानों के समान सम्मानित मूर्ख, दोनों की निंदा भी व्यंजित हो रही है, इस प्रकार अप्रस्तुत विधि- काकवृत्तान्त से प्रस्तुत मूर्खप्रभु वैधेयवृत्तान्त व्यंजित हो रहा है, अतः यहाँ सारूप्यनिबंधना अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार भी पाया जाता है, तथापि अप्रस्तुतप्रशंसा का आधार व्याजनिंदा ही है, अतः प्रथमतः प्रतीत व्याजनिंदा का भी निवारण नहीं किया जा सकता, इसी तरह यहाँ व्याजनिंदामूलक व्याजनिंदारूपा अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है, अतः यह विशेष चमत्कारी है । इसी तरह व्याजस्तुतिमूलक व्याजस्तुतिरूपा अप्रस्तुतप्रशंसा भी पाई जाती है । व्याजनिंदा का दूसरा उदाहरण यह है :टिप्पणी- 'अन्तरिछद्राणि भूयांसि' आदि उदाहरण की व्याख्या अप्रस्तुतप्रशंसा के प्रकरण
में देखिये ।