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यथा वा
कुवलयानन्दः
लावण्यद्रविणव्ययो न गणितः, क्लेशो महानर्जितः, स्वच्छन्दं चरतो जनस्य हृदये चिन्ताज्वरो निर्मितः । एषापि स्वगुणानुरूपरम णाभावाद्वराकीहता,
asardara वेधसा विनिहितस्तन्वीमिमां तन्वता ? ॥
अत्राप्रस्तुतायास्तरुण्याः सृष्टिनिन्दाव्याजेन तन्निन्दाव्याजेन च तत्सौन्दर्यप्रशंसा प्रशंसनीयत्वेन कविविवक्षितायाः स्वकवितायाः कविनिन्दाव्याजेन तन्निन्दाव्याजेन च शब्दार्थचमत्कारातिशयप्रशंसायां पर्यवस्यस्ति । अस्य श्लोकस्य वाच्यार्थविषये यद्यपि नात्यन्तसामञ्जस्यं, न हीमे विकल्पा वीतरागस्येति कल्पयितुं शक्यम् ; रसाननुगुणत्वात्, वीतरागहृदयस्याप्येवंविधविषयेष्वप्रवृत्तेश्व | नापि रागिण इति युज्यते । तदीयविकल्पेषु वराकीति कृपणतालिङ्गितस्य हतेत्यमङ्गलोपहितस्य च वचसोऽनुचितत्वात्तुल्यरमणाभावादित्यस्यात्यन्तमनुचितत्वाच्च स्वात्मनि तदनुरूपरूपासंभावनायामपि रागित्वे हि पशुप्रायता स्यात् ;
'पता नहीं इस सुन्दरो की रचना करते समय ब्रह्मा ने कौन सा अभीष्ट हृदय में रखा था, कि उन्होंने इसकी रचना करते समय सौंदर्यरूपी धन के व्यय का कोई विचार न किया, महान् क्लेश सहा, तथा स्वच्छन्द विचरण करते मनुष्य के हृदय में चिंतारूपी वर को उत्पन्न कर दिया, इस पर भी बेचारी इस सुंदरी को अपने समान वर भी न मिल पाया और यह व्यर्थ ही मारी गई ।'
यहाँ अप्रस्तुतरूप में सुंदरी की सृष्टि की निंदा की गई है तथा उसके द्वारा स्वयं सुन्दरी की निंदा व्यंजित होनी है; यहाँ सुन्दरीसृष्टिनिंदा तथा तन्मूलक सुंदरीनिंदा के व्याज से उसके सौन्दर्य की प्रशंसा व्यंजित होती है, इसी पद्य में कवि के द्वारा विवक्षित अपनी कविता के प्रशंसनीय होने के कारण, कवि की निंदा के व्याज तथा कविता की निंदा के व्याज से कविता के शब्दार्थचमत्कार की उत्कृष्टता की प्रशंसा व्यंजित होती है । इस पद्य में वाच्यार्थरूप सुन्दरोविषय में वाच्याथ ठीक तरह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि यह विकल्पमय उक्ति किसी वीतराग विरागी की हो, क्योंकि ऐसा मानने पर रसविरोध होगा, साथ ही वीतराग के हृदय में भी इस प्रकार के विकल्प नहीं उठ सकते; साथ ही ऐसी विकल्पमय उक्ति किसी शृङ्गारी युवक की भी नहीं हो सकती, क्योंकि शृङ्गारी युवक के मुँह से 'वराकी' इस प्रकार सुन्दरी की तुच्छता का द्योतक पद तथा 'हता' इस प्रकार अमंगल बोधक पद का प्रयोग ठीक नहीं है, साथ ही शृङ्गारी युवक के द्वारा 'तुल्यरमणाभावात्' कहना और अधिक अनुचित है, क्योंकि यदि वह अपने आपको उसके अयोग्य समझ कर भी उसके प्रति अनुरक्त है, तो फिर यह तो पशुतुल्य आचरण हुआ ( इससे तो शृङ्गारी युवक की सहृदयता लुप्त हो जाती हैं ) - अतः इस मीमांसा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यहाँ वाच्यार्थ ठीक तरह घटित नहीं होता । यद्यपि प्रागुक्त सरणि से पद्य का वाच्यार्थ में पूर्णतः सामंजस्य घटित नहीं होता, तथापि विवक्षित प्रस्तुत अर्थ ( कवितागत प्रस्तुत व्यंग्यार्थ ) के विषय में कोई असामंजस्य नहीं है, इस पक्ष में पद्य का व्यंग्यार्थ पूरी तरह ठीक बैठ जाता है । यही कारण है कि यहाँ वाच्यार्थ के असमंजस होने पर भी प्राचीन विद्वानों ने अप्रस्तुप्रशंसा