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कुवलयानन्दः
अत्र नायिका नायकेन सामय्य चूतलतादर्शनव्याजेन निर्गच्छन्त्या सख्या तत्स्वाच्छन्द्यसंपादनरूपेष्टसाधनं पर्यायोक्तम् । यथा वा
देहि मत्कन्दुकं राधे! परिधाननिगृहितम् ।
इति विस्रंसयनीवीं तस्याः कृष्णो मुदेऽस्तु नः॥ पूर्वत्र परेष्टसाधनम् , अत्र तु कन्दुकसद्भावशोधनार्थ नीवीविप्रेसनव्याजेन स्वेष्टसाधनमिति भेदः ।। ६६॥
३० व्याजस्तुत्यलङ्कारः उक्तियाजस्तुतिनिन्दास्तुतिभ्यो स्तुतिनिन्दयोः । यहाँ नायिका को नायक से मिलाकर आम्रलता को देखने के बहाने वहाँ से खिसकती सखी ने नायक-नायिका के स्वाच्छन्द्य (स्वच्छंदता) रूपी अभीप्सित वस्तु का संपादन किया है, अतः यहाँ पर्यायोक्त अलंकार है।
अथवा जैसे'हे राधिके, अपने अधोवस्त्र में छिपाये हुए मेरे गेंद को दे दो-इस प्रकार कह कर राधा की नीबी को ढीली करते कृष्ण हम लोगों पर प्रसन्न हों।
पहले उदाहरण में इस उदाहरण से यह भेद है कि वहाँ सखी आम्रलतादर्शनव्याज से दूसरे (नायक-नायिका) के इष्ट का साधन करती है, जब कि यहाँ गेंद को ढूंढने के लिए नीवी ढीली करने के बहाने कृष्ण अपने अभीप्सित अर्थ का संपादन कर रहे हैं।
टिप्पणी-पर्यायोक्त अलङ्कार में इन दोनों में से कोई एक भेद होता है। अतः पर्यायोक्त का सामान्यलक्षण यह होगा कि जहाँ इन दो प्रकारों में कोई एक भेद हो, वहाँ पर्यायोक्त होगा। तभी तो चन्द्रिकाकार ने कहा है:एवं च प्रकारद्वयसाधारणं तदन्यतरत्वं सामान्यलक्षणं (पर्यायोक्तत्वं ) बोध्यम् ।
(चन्द्रिका पृ० ९५ ) ( इसमें कोष्ठक का शब्द मेरा है । )
३०. व्याजस्तुति अलङ्कार ७०-७१-जहाँ निन्दा अथवा स्तुति के द्वारा क्रमशः स्तुति अथवा निन्दा की व्यंजना (कथन) हो, वहाँ व्याजस्तुति अलंकार होता है। (एक अर्थ में 'व्याजस्तुतिः' शब्द की व्युत्पत्ति 'व्याजेन स्तुतिः' होगी अन्य में 'व्याजरूपा स्तुतिः'। इस प्रकार व्याजस्तुति मोटे तौर पर तीन तरह की होगी-(१) निंदा के द्वारा स्तुति की व्यंजना, (२) स्तुति के द्वारा निन्दा की व्यंजना, (३) स्तुति के द्वारा (अन्य की) स्तुति की व्यंजना । यहाँ निन्दा से स्तुति तथा स्तुति से निंदा के क्रमशः दो उदाहरण दे रहे हैं।)
टिप्पणी-व्याजस्तुति प्रथमतः दो तरह की होती है :-(१) व्याजेन स्तुतिः ( निन्दया स्तुतिः ), ( २ ) व्याजरूपा स्तुतिः। दूसरे ढंग की व्याजरूपा स्तुति पुनः दो तरह की होगी:(१) स्तुत्या निन्दा. (२) एकस्य स्तुत्या अन्यस्य स्तुतिः। इस प्रकार सर्वप्रथम व्याजस्तुति तीन तरह की हुई:-(१) निन्दा से स्तुति की व्यंजना (२) स्तुति के द्वारा निन्दा की व्यंजना तथा (३) एक की स्तुति से दूसरे की स्तुति की व्यंजना । इनमें प्रथम दो प्रकारों के दो-दो भेद होते हैं: समानविषयक तथा भिन्नविषयक; अंतिम प्रकार केवल भिन्नविषयक ही होता है । इस तरह