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पर्यायो कलार
'चक्राभिघातप्रसभाशयैव चकार यो रोहवाधजनस्यता
आलिङ्गनोहामविलासबन्ध्यं रतोत्सवं चुम्बनमावशेष म इति प्राचीनोदाहरणं त्वन्यथा योजितं-राहुवधूगतेन विशिष्टेन रतोत्सवेन राहु. शिरश्छेदः कारणरूमो गम्यत इति । एवं च 'गम्यस्यैवाभिधानम्' इति लक्षणस्यानुपपत्तिमाशङ्कथाह-'यद्गम्यं तस्यैवाभिधानायोगात् कार्यादिद्वारेणैवाभिधानं लक्षणे विवक्षितम्' इति । - लक्षणमपि क्लिष्टगत्या योजितं लोचनकृता 'पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते' इति । इदमेव लक्षणमङ्गीकृत्य तदुदाहरणे च कार्येण शब्दा. वही है, जो हमारा है, यह दूसरी बात है कि रुय्यक ने जिस लक्षण को स्वीकार किया है, उसकी योजना ठीक नहीं की है। रसिकरंजनीकार इसी बात का संकेत यों करते हैं:__'ननु, सर्वस्वकारादिभिः, 'कार्यमुखेन कारणप्रत्यायनं पर्यायोक'मित्युक्तेः कथं तद्विरुद्धमत्र तवरणाभिधानमित्याशङ्कय तेषामप्यत्रैव तात्पर्यमिति वदन् तदीययथाश्रुततक्षणयोजनमनुपपञ्चमित्याह-( रसिकरंजनी पृ० १३९) _ 'उन (जिन) विष्णु भगवान् ने चक्र को प्रहार के लिए दी गई आज्ञा के द्वारा ही राह की स्त्रियों की रतिक्रीडा को आलिंगन के द्वारा उद्दाम विलास से रहित तथा केवल चुम्बनमात्रावशेष बना दिया।'
इस पद्य की व्याख्या में रुय्यक ने लक्षण के अनुसार लक्ष्य की मीमांसा न कर दूसरे ही ढंग का अनुसरण करते हुए कहा है :-राहूवधूगत आलिंगनशून्य चुम्बन मात्रावशेष (विशिष्टेन) रति क्रीडा (रूप कार्य) के द्वारा राहू के शिर का काट देना (राहुशिरश्छेद) यह कारण रूप अर्थ व्यजित हो रहा है। इसी प्रकार लक्षण के 'गम्यस्येवाभिधानं' पद की अनुपपत्ति की आशंका कर रुय्यक ने पर्यायोक्त अलंकार के प्रकरण में इस शंका का समाधान करते हुए कहा है कि काव्य में जो गम्य (व्यंग्य) अर्थ है, स्वयं उसका ही अभिधान नहीं पाया जाता, अतः उससे भिन्न रीति से उसका अभिधान करने का तात्पर्य यह है कि कारण (रूप व्यंग्य)का कार्य के द्वारा अभिधान किया गया हो। इस प्रकार रुय्यक ने लक्षण तो ठीक दिया है पर उदाहरण की व्याख्या अन्यथा की है, तथा उसमें कार्य के द्वारा कारण का कथन मान लिया है।
टिप्पणी-रुय्यक ने कार्य रूप अप्रस्तुत से कारण रूप प्रस्तुत की व्यंजना वाली अप्रस्तुत प्रशंसा तथा पर्यायोक्त की तुलना करते समय इस पद्य को उदाहृत कर इसकी जो व्याख्या की है, वह दीक्षित ने 'राह'गम्यते' के द्वारा उद्धृत की है। (दे० ॐ लंकारसर्वस्व पृ० १३५)
पर्यायोक्त के प्रकरण में गम्य के अभिधानत्व के विषय में शंका उठाकर उसका समाधान करते हुए रुय्यक ने निम्न संकेत किया है:___ 'यदेव गम्यं तस्यैवाभिधाने पर्यायोक्तम् । गम्यस्य सतः कथमभिधानमिति चेत् , गम्यापेक्षया प्रकारान्तरेणाभिधानस्याभावात् । नहि तस्यैव तदैव तयैव विच्छित्या गम्यत्वं वाच्यत्वं च संभवति । अतः कार्यमुखद्वारेणाभिधानम् । कार्यादेरपि तत्र प्रस्तुतत्वेन वर्णनाहत्वात् ।
( अलंकारसर्वस्व पृ० १४१-२) किन्तु लोचनकार अभिनवगुप्त ने इसका लक्षण भी क्लिष्टरीति से बनाया है :-'पर्यायोक्त वहाँ होगा, जहाँ (वाच्यवाचकभाव से भिन्न) किसी अन्य प्रकार से वक्तव्य अर्थ की प्रतीति हो।' इसी लक्षण को मानकर उसके उदाहरण में शब्द के द्वारा वाच्यरूप में