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सौकुमार्यातिशयनिरीक्षण कार्यत्वमपि नार्थाक्षेप्यमालती कठोरत्वे विवक्षितं, प्रतियोगि विशेषापेक्ष कठोरत्वस्य तदकार्यत्वात्किंतु तद्बुद्धेरेव । इदमपि 'त्वदङ्गमार्दवे दृष्टे' इत्याद्युदाहरणान्तरे तथैव स्पष्टम् | अर्थस्य कार्यत्व इव बुद्धेः कार्यत्वेऽपि कार्यनिबन्धनत्वं न हीयत इति । एतादृशान्यपि कार्यनिबन्धनाप्रस्तुतप्रशंसायामुदाहृतानि प्राचीनैः । वस्तुतस्तु - तदतिरेकेऽपि न दोषः । न ह्यप्रस्तुतप्रशंसायां प्रस्तुता प्रस्तुतयोः पञ्चविध एव सम्बन्ध इति नियन्तुं शक्यते; सम्बन्धान्तरेष्वपि तद्दर्शनात् ।
यथा
अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कारः
तापत्रयौषधवरस्य तव स्मितस्य निःश्वासमन्दमरुता निबुसीकृतस्य । एते कडकरचया इव विप्रकीर्णा जैवातृकस्य किरण जगति भ्रमन्ति ॥
अत्र प्रस्तुतानां चन्द्रकिरणानां भगवन्मन्दस्मित रूपदिव्यौषधीधान्यविशेषकडङ्करच यत्त्रोत्प्रेक्षणेन भगवन्मन्दस्मितस्य तत्सारतारूपः कोऽप्युत्कर्षः प्रतीयते ।
कठोरता' इत्यादि के द्वारा नायिका के अंगसौकुमार्यनिरीक्षण के कार्यरूप में यहाँ मालती का प्रस्तरतुल्यत्र (कठोरता) निबद्ध किया गया है । यहाँ वर्णनीय नायिका के अंगसौकुमार्य के कार्यरूप में निबद्ध होने पर भी यह अर्थ के द्वारा आक्षिप्त मालती कठोरता में विवक्षित नहीं है - अर्थात् कवि की विवक्षा यहाँ मालती की कठोरता को ही कार्यरूप में निबद्ध करने की नहीं है, क्योंकि अकठोरता रूप प्रतियोगी ( कठोरत्वाभाव ) के द्वारा आक्षिप्त कठोरता उसका कार्य नहीं हो सकती । अतः यहाँ 'अंगानामकठोरता' इत्यादि से मालती की प्रस्तरतुल्यता ( कठोरता ) की बुद्धि होना ही कार्य समझा जाना चाहिए । इसी प्रकार 'स्वदङ्गमार्दवे दृष्टे' इत्यादि में भी मालती चन्द्रमा या कदली की कठोरता को स्वयं कार्यरूप में न निबद्ध कर उनकी कठोरताविषयक बुद्धि को ही कार्यरूप में निबद्ध किया गया है । अतः जिस प्रकार किसी अप्रस्तुत अर्थ में कार्यत्व माना जाता है, वैसे ही उस प्रकार के अर्थ की बुद्धि ( प्रतीति) में भी कार्यनिबन्धन मानना ( उसमें भी कार्यव मानना ) खण्डित नहीं होता। इसीलिए प्राचीनों ने अप्रस्तुत अर्थसंबद्ध बुद्धि वाले स्थलों में भी कार्यनिबन्धना अप्रस्तुतप्रशंसां उदाहृत की है। यदि कोई यह शङ्का करे कि ऐसा करने पर तो अप्रस्तुतप्रशंसा कथितभेदों से, अधिक होगी, तो ऐसा होने पर भी कोई दोष नहीं । क्योंकि अप्रस्तुतप्रशंसा में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत उपर्युक्त पाँच प्रकार का ही संबंध होता है, ऐसा नियम नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि इनसे इतर संबंधों में भी अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार देखा जाता है, जैसे निम्न पद्य में
'हे विष्णो, आपके मन्द निःश्वास पवन के द्वारा बुसरहित बनाई हुई आपकी मुसकुराहट के -जो तीनों तापों की औषधि है - बुससमूह के समान इधर-उधर बिखरी हुई ये चन्द्रमा की किरणें संसार में घूम रही हैं ।'
यहाँ कवि ने अप्रस्तुत चन्द्रकिरणों के विषय में यह उत्प्रेक्षा की है कि वे भगवान् के मन्दस्मित रूपी दिव्य औषधि धान्य बुस हैं, इस उत्प्रेक्षा के द्वारा भगवान् का स्मित चन्द्रकिरणों का भी सार है - यह भाग भगवान् के स्मित की उत्कर्षता को व्यञ्जित करता
कुव०८