________________
कुवलयानन्दः
इत्यत्रेवाक्षिप्तश्लेषो भवेत् । सममित्येतत्त क्रियाविशेषणं सहार्थत्वेनाप्युपपन्नं वधूषु श्लिष्टविशेषणार्थान्वयात्प्राक् द्रागप्रतीतं साम्याथ नालम्बते । तस्मादर्थसौन्दर्यबलादेव तदन्वयानुसंधानमिति गूढः श्लेषः । तदनु तद्वलादेव 'सम'शब्दस्य साधार्थकल्पनमिति वाच्यस्यैवोपमालङ्कारस्याङ्गमयं श्लेष इत्यलं प्रपञ्चेन । तस्मात्सिद्धं श्लेषत्रैविध्यम् । एवं च श्लेषः प्रकारान्तरेणापि द्विविधः संपन्नः । उदाहरणगतेषु 'अब्ज-कीलाल-वाहिनीपत्यादिशब्देषु परस्परविलक्षणं पदभङ्गमनपेक्ष्यानेकार्थक्रोडीकारादभङ्गश्लेषः। 'सर्वदो माधवः', 'यो गङ्गा', 'हरिणाहितसक्तिना' इत्यादिशब्देषु परस्परविलक्षणं पदभङ्गमपेक्ष्य नानाथकोडीकारात् सभङ्गश्लेष इति । तत्र सभङ्गश्लेषः शब्दालङ्कारः। अभङ्गश्लेषस्त्वर्था
जल की शोभा को धारण करती, पवन से उत्पन्न वेग के कारण सुब्ध तथा सारसों से युक्त लक्ष्मणा (सारसपक्षिणी) वाली बड़ी तलैयाँ; अत्यधिक बन्दरोंवाली, शोभायुक्त, हनुमान् के द्वारा अपने बल के कारण सुब्ध बनाई हुई तथा राम और लक्ष्मण से युक्त, वाल्मीकि की बाणी की समानता को धारण करती हैं।
यदि कोई यह कहे कि 'रम्या इति' इत्यादि पद्य में 'सम' पद के द्वारा साधर्म्यनिबंधन पाया जाता है, तो यह समाधान किया जा सकता है कि 'सम' यहाँ क्रियाविशेषण है तथा 'सह' अर्थ में उपपन्न नहीं होता। स्त्रियों के साथ श्लिष्ट विशेषणों का अन्वय होने के पूर्व हमें एकदम साधर्म्य की प्रतीति नहीं हो पाती, अतः 'सम' के द्वारा साधर्म्य की उपपत्ति न होने के कारण साधर्म्यमूलक आक्षेप भी नहीं हो सकता, जिससे यहाँ 'आक्षिप्तश्लेष' मान लिया जाय । इसलिए विभक्तिभेद के द्वारा प्रयुक्त श्लिष्टविशेषों का अन्वय शब्दसामर्थ्य से नहीं होता, अपितु अर्थसौंदर्य के कारण 'घधूभिः' के साथ उनका अन्वय घटित होता है, अतः यहाँ गढ़ श्लेष है। तदनंतर उसी अर्थसौंदर्य के कारण 'समं पद का साधर्म्य वाला अर्थ भी कल्पित किया जाता है-इस प्रकार यह श्लेष वाच्यरूप उपमा अलंकार का ही अंग बन जाता है। इस संबंध में अधिक विवेचन व्यर्थ है। इससे स्पष्ट है कि अर्थश्लेष तीन तरह का होता है। इस प्रकार श्लेष प्रकारान्तर से भी दो तरह का होता है:-अभंगश्लेष तथा सभंगश्लेष । उपर्युक्त उदाहरणों में 'अब्ज', 'कीलाल', 'वाहिनीपति' आदि शब्दों में दोनों अर्थों में एक सी ही पदसिद्धि होती है, भिन्न-भिन्न प्रकार का पदभंग नहीं पाया जाता, अतः पदभंग के बिना ही अनेक अर्थों का समावेश होने के कारण यहाँ अभंगश्लेष है। जब कि 'सर्वदो माधवः' (सर्वदो माधवः, सर्वदा उपमाघदः), यो गंगां (यो अगं गां, यो गंगां) हरिणाहितसक्तिना (हरिणा आहितसक्तिना, हरिण आहितसक्तिना) आदि शब्दों में तत्तत् पक्ष में अर्थप्रतीति के लिए परस्पर भिन्न पदच्छेद की आवश्यकता होती है, अतः भिन्न-भिन्न प्रकार के पदभंग के द्वारा अनेकार्थ का समावेश होने से यहाँ सभंगश्लेष हैं। अभंगश्लेष तथा सभंगश्लेष के विषय में आलंकारिकों में अलग-अलग मत पाये जाते हैं । कुछ आलंकारिक ( अलंकारसर्वस्वकार रुय्यक आदि) सभंगश्लेष को शब्दालंकार मानते हैं, अभंगश्लेष को अर्थालंकार । दूसरे आलंकारिक (मम्मटादि) दोनों को ही शब्दालंकार मानते हैं, (क्योंकि श्लेष में जहाँ शब्दपरिवृत्यसहत्व होता है, वहाँ उन्हें शब्दालंकार मानना अभीष्ट है, अतः वे शब्दालंकार श्लेष तथा अर्थालंकार श्लेष का यह भेद मानते हैं कि जहाँ शब्दपरिवृत्ति से