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अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कारः
कारणनिबन्धना यथा ( नैषधीय. २।२५ ) -
हृतसारमिवेन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा । कृतमध्य बिलं विलोक्यते धृतगम्भीर खनीखनीलिम || अत्र अप्राकरणिकेन्दुमण्डलगततयोत्प्रेक्ष्यमाणेन दमयन्तीवदननिर्माणार्थं सारांशहरणेन तत्कारणेन तत्कायरूपं वणनीयतया प्रस्तुतं दमयन्तीवदनगतलोकोत्तर सौन्दर्य प्रतीयते । यथा वा मदीये वरदराजस्तवेआश्रित्य नूनममृतद्युतयः पदं ते देहक्षयोपनत दिव्यपदाभिमुख्याः । लावण्यपुण्यनिचयं सुहृदि त्वदास्ये
विन्यस्य यान्ति मिहिरं प्रतिमासभिन्नाः ॥
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सामान्यभाव की अभिव्यक्ति बलराम को अभीष्ट है । इस सामान्यभाव के अभीष्ट होने पर कवि ने यहाँ इसकी व्यंजना के लिए विशेष रूप अप्रस्तुत वृत्तान्त ( सिंह चन्द्रवृत्तान्त) का प्रयोग किया है। इसी तरह बृहत्कथा आदि कथा संग्रहों में जहाँ किसी प्रस्तुत सामान्य अर्थ के 'प्रस्ताव में उसे स्पष्ट करने के लिए किसी अप्रस्तुत कथाविशेष का प्रयोग किया जाता है, वहाँ भी अप्रस्तुतप्रशंसा देखी जा सकती है ।
कारणनिबन्धना अप्रस्तुतप्रशंसा वहाँ होगी, जहाँ कारणरूप अप्रस्तुत के द्वारा कार्य रूप प्रस्तुत की व्यंजना पाई जाय । जैसे,
यह पद्य नैषधीयचरित के द्वितीय सर्ग के दमयन्तीसौन्दर्य वर्णन से उद्धत है
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ऐसा जान पड़ता है कि दमयन्ती के मुख को बनाने के लिए ब्रह्मा ने चन्द्रमण्डल के सारभाग को ले लिया है, और सारभाग के ले लेने से बीच में छिद्र हो जाने से ही यह चन्द्रमण्डल गम्भीर गड्ढे के कारण आकाश की नीलिमा को धारण करता हुआ दिखाई दे रहा है । ( चन्द्रमा का कलंक वस्तुतः वह गड्ढा है, जो दमयन्ती की रचना करने के लिये लिए गये सारभाग के अभाव में हो गया है और इसीलिए कलंक की कालिमा उस गड्ढे से दिखने वाली आकाश की नीलिमा है । )
यहाँ प्रस्तुत इन्दुमण्डल में दमयन्तीवदन के निर्माण के लिए सारभाग का ले लेना उत्प्रेक्षित किया गया है। इस उत्प्रेक्षित कारण रूप अप्रस्तुत के द्वारा 'दमयन्तीवदन लोकोत्तर सौन्दर्य वाला है' यह कार्यरूप प्रस्तुत अभिव्यक्त हो रहा है ।
अथवा जैसे अप्पयदीक्षित के ही वरदराजस्तव में
'हे भगवन्, प्रत्येक मास में भिन्न अनेकों चन्द्रमा, देहक्षय के कारण दिव्यपद के प्रति उन्मुख हो, आपके चरणों ( या आपके पद-आकाश ) का आश्रय लेकर, अपने सौन्दर्य रूपी पुण्य के समूह को अपने मित्र, आपके मुख के पास रख कर सूर्य के पास चले जाते हैं ।
यहाँ भगवान् के मुख के अनुपमे सौन्दर्य का वर्णन कवि को अभीष्ट है, अतः वह प्रस्तुत है । कवि ने उसका वर्णन वाच्यरूप में न कर उसकी व्यंजना कराई है । इस पद्य मैं कवि ने अप्रस्तुत चन्द्रमा रूपी कर्ता के द्वारा अपने मित्र ( मुख ) के पास समस्त लावण्य पुण्य के समूह का रखना उत्प्रेक्षित किया है । यह अप्रस्तुत कारण है । इसके . द्वारा इस कार्य की व्यंजना होती है कि भगवान् के मुख में अनन्त कोटि चन्द्रमाओं का लावण्य विद्यमान है, तथा वह अन्य मुखों से आसाधारण है ।