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श्लेषालङ्कारः । अत्र हि समासोक्त्युदाहरणयोः प्राकरणिकेऽर्थे प्रकरणवशात् झटिति बुद्धिस्थे विशेषणसाम्यादप्रकृतोऽपि वृद्धवेश्यावृत्तान्तादिः प्रतीयते । तत्र समासोक्तिरमङ्गश्लेष इति सर्वेषामभिमतमेव । एवमन्यत्रापि गूढश्लेषे ध्वनिबुद्धिर्न कार्या। यथा वा (माघ० ३।५३)
रम्या इति प्राप्तवतीः पताका राग विविका इति वर्धयन्तीः । यस्यामसेवन्त नमवलीकाः समं वधूभिर्वलभीर्युवानः ।। अत्र द्वितीयान्तविशेषणसमर्पितार्थान्तराणां न शब्दसामर्थेन वधूभिरन्वयः, विभक्तिभेदात् । न च विभक्तिभेदेऽपि तदन्वयाक्षेपकं साधयमिह निबद्धमस्ति । यत:'एतस्मिन्नधिकपयः श्रियं वहन्त्यः संक्षोभं पवनभुवा जवेन नीताः। वाल्मीकेरहितरामलक्ष्मणानां साधम्य दधति गिरी महासरस्यः ।।
(माघ. २०५९) दिया, अन्धकार ने अपनी पुष्टता व्यक्त की, तथा नेत्रों ने अन्धकार युक्त दोष को प्राप्त . किया। (चन्द्रपक्ष) _वैद्य (ओषधिपति) के अभाव में सूर्यकान्तमणियों को मन्दाग्नि रोग हो गया, अंधेरे को शोथ आ गया और दृष्टि को आन्ध्य रोग हो गया।(वैधपक्ष) __ ये दोनों समासोक्ति अलङ्कार के उदाहरण हैं। इनमें प्रकरण के कारण प्राकरणिक अर्थ (तटीगत तथा चन्द्रगत अर्थ)झटिति प्रतीत होता है, किन्तु समान विशेषणों के कारण अप्रकृत वृद्धवेश्यावृत्तान्त तथा वैद्यवृत्तान्त की भी प्रतीति होती है। इन स्थलों पर समासोक्ति तथा अभंगश्लेष की सत्ता सभी आलङ्कारिक मानते हैं। (ततः अप्राकरणिक अर्थ की प्रतीति में ऐसे स्थलों में गूवश्लेषही होगा।) इसी तरह अन्य स्थलों में भी गूढश्लेष में ध्वनित्व नहीं मानना चाहिए। अथवा जैसे निम्न पथ में__माघ के तृतीय सर्ग से द्वारिकावर्णन है :-'जिस द्वारिकापुरी में युवक, रम्य होने के कारण सौभाग्य को प्राप्त करती, पवित्र होने के कारण अनुराग को बढ़ाती नतत्रिवलि वाली सुन्दरियों के साथ, रम्य होने के कारण पताकाओं को प्राप्त करवी, जनरहित होने के कारण रति को बढ़ाती, नीचे छाजन वाली वलभियों का सेवन करते थे।'
इस पद्य में जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है, वे सब द्वितीयान्स हैं। अतः इन विशेषणों से जिन अन्य अर्थों की-वधूपक्ष वाले अर्थ की प्रतीति हो रही है, उनका शब्द के द्वारा 'वधूभिः' पद (विशेष्य) के साथ अन्वय नहीं हो सकता, क्योंकि यह पद तृतीयान्त है तथा दोनों में विभक्तिभेद पाया जाता है। साथ ही इस पथ में कवि ने ऐसे कोई साधर्म्य का निबन्धन नहीं किया है, जो विभक्तिभेद के होने पर भी विशेष्य के साथ विशेषणों के अर्थान्तर का अन्वय घटित कर दे, जिससे निम्न पथ की भांति यहाँ भी आशिप्तश्लेष मान लिया जाय:
(आक्षिप्तश्लेष का उदाहरण निम्न पच है, जहाँ अर्थान्तर का विभक्तिभेद होने पर साधर्म्य निबन्धन के कारण विशेष्य के साथ अन्वय हो जाता है।)
माघ के चतुर्थ सर्ग से रैवतक पर्वत का वर्णन है:-इस रैवतक पर्वत में अत्यधिक