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कुवलयानन्दः पूरं विधुर्वर्धयितुं पयोधेः शङ्केऽयमेणाङ्कमणिं कियन्ति |
पयांसि दोग्धि प्रियविप्रयोगे सशोककोकीनयने कियन्ति ।। अत्र चन्द्रेण कृतं समुद्रस्य बृंहणं सदेव तदा तेन कृतस्य चन्द्रकान्तद्रावणस्य कोकाङ्गनाबाष्पस्रावणस्य च फलत्वेनोत्प्रेक्ष्यत इति सिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा।
रथस्थितानां परिवर्तनाय पुरातनानामिव वाहनानाम् । ___ उत्पत्तिभूमौ तुरगोत्तमानां दिशि प्रतस्थे रविरुत्तरस्याम् ।।
अत्रोत्तरायणस्याश्वपरिवर्तनमसदेव फलत्वेनोत्प्रेक्ष्यत इत्यसिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा | एता एवोत्प्रेक्षाः। इलेष तथा उपर्युक्त संकर का अंगांगिभाव संकर है । इसके द्वारा उत्प्रेक्षा की प्रतीति होती है, अतः उसके साथ इस संकर का अंगांगिभाव संकर है। इस उत्प्रेक्षा से अचेतन सूर्य पर क्लिष्ट विशेषणों के कारण किसी चेतन व्यक्ति ( ग्वाले ) का व्यवहार समारोप पाया जाता है, अतः समासोक्ति के ये सभी पूर्वोक्त अलंकार अङ्ग बन जाते हैं। साथ ही यहाँ 'मनुष्यों की आँखों का ज्योतिरहित होना' इस उक्ति के समर्थन के लिए समर्थक पूर्व वाक्यार्थ का प्रयोग किया गया है, अतः कायलिंग अलंकार भी है। इसका उत्प्रेक्षा व समासोक्ति के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर पाया जाता है। साथ ही ज्योतिर हितता के कारण अधंकार के हेतुत्व का निषेध कर सूर्य के द्वारा गौ ( नेत्रों ) के अपहरण रूप कारण को उपस्थित करने से उत्प्रेक्षा अपह्नतिगर्भा है ।
सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा का उदाहरण निम्न पद्य है :
'चन्द्रमा समुद्र के जल को बढ़ाने के लिए चन्द्रकान्तमणि के कितने ही (अत्यधिक) द्रव को तथा चक्रवाक (प्रिय) के वियोग के कारण दुखी चक्रवाकी के नेत्रों के कितने ही जल को दुहता है।' ___ यहाँ चन्द्रमा के कारण समुद्र का उत्तरलित होना स्वतः सिद्ध है, किंतु कवि ने उस उत्तरलता को चन्द्रकांतमणि के द्रव तथा कोकांगना (चकवी) के आँसुओं का फल संभावित किया है, अतः यह सिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा है। (यहाँ कोकांगना के आँसुओं का कारण 'प्रियवियोग' बताया गया है, अतः काव्यलिंग अलंकार भी है।)
असिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा जैसे:
'सूर्य, मानो अपने रथ में जुते पुराने घोड़ों को बदलने के लिए, उत्तम जाति के घोड़ों के उत्पत्तिस्थान उत्तर दिशा को रवाना हो गया।' __ यहाँ उत्तरायण का कारण घोड़ों को बदलना नहीं है (घोड़ों को बदलने का फल उत्तरायण नहीं है), किंतु फिर भी कवि ने उत्तरायण को घोड़ों के बदलने का फल संभावित किया है, अतः असिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा है। साथ हो यहाँ साधारण विशेषणों के कारण सूर्य पर चेतन तुरंगाधिप का व्यवहारसमारोप भी प्रतीत होता है अतः समासोक्ति भी है । 'प्रायोऽब्ज' तथा इस उदाहरण में यह भेद है कि वहां गुण की फलरूप में संभावना की गई है, यहाँ परिवर्तन क्रिया की।)
(इस संबंध में पूर्वपक्षी को यह शंका हो सकती है कि अलंकार सर्वस्वकार ने तो और प्रकार की भी उत्प्रेक्षायें मानी हैं, यथा जात्युत्प्रेक्षा, क्रियोस्प्रेक्षा, गुणोत्प्रेक्षा, द्रव्यो. स्प्रेक्षा-तो अप्पय दीक्षित ने उनका संकेत क्यों नहीं किया, इसी का समाधान करते हैं:-) टिप्पणी-सा च जातिक्रियागुणद्रव्याणामप्रकृताध्यवसेयत्वेन चतुर्धा । (अ०स०पृ०७२)
( साथ ही इनके उदाहरणों के लिए देखिये वही, पृ० ७३-७४)