________________
५४
यथा वा
कुवलयानन्दः
wwwww m
कवीन्द्राणामासन् प्रथमतरमेवाङ्गणभुवश्चलभृङ्गासङ्गाकुलकरिमदा मोदमधुराः । अमी पश्चात्तेषामुपरि पतिता रुद्रनृपतेः कटाक्षाः क्षीरोदप्रसरदुरुवीची सहचराः ॥ एतास्तिस्रोऽप्यतिशयोक्तयः कार्यशैत्र्यप्रत्यायनार्थाः ॥ ४३ ॥
इसका अन्य उदाहरण निम्न है ।
कोई कवि राजा रुद्र की दानवीरता का वर्णन कर रहा है । 'महाकवियों के आँगन पहले ही चञ्चल भौरों के कारण व्याकुल हाथियों के मद की सुगन्ध से सुगन्धित हो जाते हैं, इसके बाद कहीं जाकर राजा रुद्र के दुग्धसमुद्र की विशाल लहरों के समान ( कृपा - ) कटाक्ष उन पर गिरते हैं ।'
( यहां राजा रुद्र का प्रसन्न होना, उसके कृपाकटाक्ष का पात, कारण है, जिससे कवियों के आँगन का हस्तिसंकुल होना रूप कार्य उत्पन्न होता है । यहाँ कवि ने कार्य का पहले होना वर्णित किया है, कारण का बाद में, अतः यह अत्यन्तातिशयोक्ति है | )
ये तीनों अतिशयोक्तियाँ कार्य की शीघ्रता की व्यंजना कराती हैं ।
टिप्पणी-- अतिशयोक्ति के प्रकरण का उपसंहार करते हुए चन्द्रिकाकार ने इस बात पर विचार किया है कि रूपकातिशयोक्ति से इतर भेदों का अतिशयोक्ति में क्यों समावेश किया गया ? पूर्वपक्षी की शंका है कि उपर्युक्त भेदों में समान प्रवृत्तिनिमित्तत्व नहीं पाया जाता, फलतः उन सभी को अतिशयोक्ति क्यों कहा जाता है ? चन्द्रिकाकार इसका समाधान करते कहते हैं कि इन भेदों में से
सामान्य लक्षग
कोई एक भेद का होना यही सबको अतिशयोक्ति सिद्ध करता है, अतिशयोक्ति का भी इतना ही है कि जहाँ इनमें से कोई एक भेद होगा, वहाँ अतिशयोक्ति होगी । चन्द्रिकाकार ने इसी सम्बन्ध में नव्य आलंकारिकों का मत भी दिया है। नव्य आलंकारिकों के मत से केवल निगीर्याध्यवसानत्व ही अतिशयोक्ति का लक्षण है, फलतः रूपकातिशयोक्ति से भिन्न भेदों में अन्य अलंकार माने जाने चाहिए, अतिशयोक्ति के भेद नहीं। यदि आप यह कहें कि और भेदों में भी अन्यत्वादि के द्वारा विषय का निगरण पाया जाता है, तो यह दलील ठोक नहीं । क्योंकि अन्यत्वादि ( यथा अभेदे भेदरूपा अतिशयोक्ति ) में उसको अभिन्न वस्तु होने की प्रतीति ही चमत्कारकारी होती है, अतः उसे अभेदप्रतीति का कारण मानना अनुभव विरुद्ध जान पड़ता है ।
चन्द्रिकाकार इस नव्य मत से सहमत नहीं । वे अतिशयोक्ति का लक्षण देकर उसकी मीमांसा करते हैं । अतिशयोक्ति का सामान्य लक्षण यह है : - रूपकभिन्नत्वे सति चमत्कृतिजनकाहार्या रोपनिश्चयविषयत्वम् (एव) अतिशयोक्तिसामान्यलक्षणम् । यहाँ 'रूपकभिन्नत्वे सति' के द्वारा रूपक का, आहार्यादि के द्वारा भ्रांति का तथा निश्चयादि के द्वारा उत्प्रेक्षा का वारण किया गया है । इस सामान्य लक्षण के मानने पर तद्विशिष्ट 'चमत्कृतिजनकविषयत्व' इन सभी भेदों में पाया जाता है । रूपकातिशयोक्ति में यह अभेद का है, द्वितीय भेद में अन्यत्व का, तोसरे भेद में सम्बन्ध का, चौथे में असम्बन्ध का, पंचम में सहत्व का, षष्ठ में हेतुप्रसक्तिजन्यत्व का तथा सप्तम में पूर्वत्वापरत्व का । इस प्रकार ऐसे आरोपविषयत्व के कारण सभी भेदों में लक्षण समन्वय हो जाता है । यदि पूर्वपक्षी यह शंका करे कि ऐसा मानने पर तो रूपक तथा स्वभावोक्ति से इतर सभी अलंकारों में अतिश ज्योक्ति की अतिव्याप्ति होगी, तो यह ठीक नहीं, क्योंकि यह हमारे इष्ट के विरुद्ध होगा । जहाँ कहीं