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कुवलयानन्दः
२१ सहोक्त्यलङ्कारः सहोक्तिः सहभावश्चेद्भासते जनरञ्जनः। दिगन्तमगमत्तस्य कीर्तिः प्रत्यर्थिभिः सह ॥ ५८ ॥
यथा वा
छाया संश्रयते तलं विटपिना श्रान्तेव पान्थैः समं
मूलं याति सरोजलस्य जडता ग्लानेव मीनैः सह । । आचामत्यहिमांशुदीधितिरपस्तप्तेव लोकैः समं
निद्रा गर्भगृहं सह प्रविशति क्लान्तेव कान्ताजनैः ।। 'जनरञ्जन' इत्युक्ते 'अनेन साधू विहराम्बुराशेः' ( रघु० ६।५७ ) इत्यादौ न सहोक्तिरलङ्कारः ।। ५८ ॥
(यहाँ उपमेय का न तो आधिक्य वर्णित है, न न्यूनत्व ही पद्य का चमत्कार अपने आप में ही विश्रान्त हो जाता है।) .
२१. सहोक्ति अलङ्कार ५८-यदि दो पदार्थों के साथ रहने का वर्णन चमत्कारी (जनरंजन) हो, तो वहाँ सहोक्ति अलङ्कार होता है, जैसे, उस राजा की कीर्ति शत्रुओं के साथ दिगंत में चली गई।
(यहाँ शत्रु दिगंत में भग गये और कीर्ति दिगंत में फैल गई, इन दोनों की सहोक्ति चमत्कारी है।)
टिप्पणी-इस लक्षण में 'जनरंजन:' पद महत्त्वपूर्ण है, तभी तो चन्द्रिकाकार ने सहोक्ति का लक्षण यों दिया है-चमत्कृतिजनक साहित्यं सहोक्तिः'। जहाँ अनेक पदार्थों का साहित्य चमत्कारजनक न हो वहाँ यह अलंकार नहीं होगा, इसीलिए निम्न पद्य में 'साहित्य' होने पर उसके चमत्कारजनकत्वाभाव के कारण सहोक्ति अलङ्कार न हो सकेगा :
'अनेन साधं विरहाम्बुराशेस्तीरेषु तालीवनमर्मरेषु ।
द्वीपान्तरानीतलवंगपुष्पैरपाकृतस्वेदलवा मरुद्भिः ॥' अथवा जैसे
ग्रीप्मऋतु के मध्याह्न का वर्णन है। पथिकों के साथ छाया मानो थककर वृक्षों के तले जाकर विश्राम ले रही है, शीतलता मानो सिमट कर मछलियों के साथ सरोवर के जल की जड़ में चली गई है, सूर्य की किरणें मानों प्रतप्त होकर लोगों के साथ पानी का आचमन कर रही हैं और निद्रा मानो कुम्हलाकर रमणियों के साथ तहखानों में घुस गई है। .. कारिका के 'जनरंजन' पद से यह भाव है कि 'अनेन साधं विहराम्बुराशेः' आदि पद्यों में सहोक्ति अलंकार इसलिए न होगा कि वहाँ जनरंजकत्व (चमत्कृतिजनकत्व) नहीं पाया जाता। ___टिप्पणी-तिकजनीकार ने बताया है कि सहोक्ति दो तरह की हो सकती है-एक
.41 वोपयरूप, दूसरी भेटवसायरूप। अन्य का उदाहरण केवल प्रथम प्रकार का है, दृत प्रकार का उदाहरण यह है :-'अस्तं भास्वान्प्रयातः सह रिपुभिरयं संहियन्तां बलानि',