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विनोक्त्यलकारः
२२ विनोत्यलङ्कारः विनोक्तिश्चेद्विना किंचित्प्रस्तुतं हीनमुच्यते ।
विद्या हृद्यापि साऽवद्या विना विनयसंपदम् ॥ ५९ ॥ यथा वा
यश्च रामं न पश्येत्त यं च रामो न पश्यति ।
निन्दितः स भवेल्लोके स्वात्माप्येनं विगहते ॥ अत्र च रामदर्शनेन विना हीनत्वं 'विना' शब्दमन्तरेणैव दर्शितम् ॥ ५६ ॥ तच्चेत्किचिद्विना रम्यं विनोक्तिः सापि कथ्यते ।
विना खलैविभात्येषा राजेन्द्र ! भवतः सभा ॥६॥ यथा वा--
आविर्भूते शशिनि तमसा मुच्यमानेव रात्रि
नैंशस्यार्चिहुतभुज इव च्छिन्नभूयिष्ठधूमा । यहाँ 'अस्तगमन' श्लिष्ट है। कभी-कभी श्लेष के बिना भी अध्यवसाय होता है-'कुमुददलैस्सह सम्प्रति विघटन्ते चक्रवाकमिथुनानि'। यहाँ 'विघटन्ते' इस एक शब्द के द्वारा चक्रवाक तथा कुमुदसम्बन्धि भेद से भिन्न विप्रलंभ तथा विभाजन का अध्यवसाय किया गया है। सहोक्ति के विषय में यह जानना जरूरी है कि यह सदा अतिशयोक्तिमूलक होती है, फिर भी विशेष चमत्कार होने के कारण इसे अलग अलंकार माना जाता है :-'सहभावो शतिशयोक्तिमूलक एव वर्ण्यमानो विच्छित्तिविशेषशालितयाऽलङ्कारः। ( रसिकरंजनी पृ० ९९ )
२२. विनोक्ति अलङ्कार ५९-जहाँ विना के प्रयोग के द्वारा किसी वस्तु को हीन बताया जाय, वहाँ विनोक्ति अलंकार होता है, जैसे, विनय से रहित विद्या मनोहर होने पर भी निंद्य है।
(यहाँ विनय के विना विद्या की हीनता बताई गई है।) अथवा जैसे
'जो राम को नहीं देख पाता और जिसे राम नहीं देखता, ऐसा व्यक्ति संसार में निन्दित होता है, उसकी स्वयं की आत्मा भी उसकी निन्दा करती है।'
यहाँ रामदर्शन के बिना मनुष्यजीवन हीन है इसको 'विना' शब्द के प्रयोग के बिना ही वर्णित किया गया है।
(उपर के उदाहरण से इसमें यह भेद है कि वहाँ विनोक्ति शाब्दी है, यहाँ आर्थी।)
६०-किसी वस्तु के बिना (अभाव में) कोई वस्तु सुन्दर वर्णित की जाय, वहाँ भी विनोक्ति अलङ्कार होता है, जैसे हे राजेन्द्र, आपकी सभा दुष्टों के अभाव में (दुष्टों के बिना)सुशोभित हो रही है।
अथवा जैसे
कोई नायक मानवती नायिका के विषय में कह रहा है:-जिस प्रकार चन्द्रमा के उदित होने पर रात्रि अन्धकार से छुटकारा पाती दिखाई देती है, जिस प्रकार अत्यधिक घने अन्धकार के नष्ट होने पर रात में अग्नि की ज्वाला प्रकाशित होती है तथा जिस