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परिकरालङ्कारः
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सर्वधन्विधैर्यभञ्जकत्वे शरीरसंरक्षणार्थ पापमाचरतां मूढत्वे, स्वस्य वर्णनीयराजगुणकथनाशक्तत्वे च वाच्य एवोपस्कारकत्वात् । अत एव व्यङ्गयार्थस्य वाच्यपरिकरत्वात् परिकर इति नामास्यालङ्कारस्य । केचित्त-निष्प्रयोजनविशेषगोपादानेऽपुष्टार्थत्वदोषतयोक्तत्वात् सप्रयोजनत्वं विशेषणस्य दोषाभावमात्रं न कश्चिदलङ्कारः । एकनिष्ठातादृशानेकविशेषणोपन्यासे परं वैचित्र्यविशेषात्परिकर इत्यलङ्कारमध्ये परिगणित इत्याहुः । वस्तुतस्त्वनेकविशेषणोपन्यास एव परिकर इति न नियमः । श्लेषयमकादिष्वपुष्टार्थदोषाभावेन तत्रैकस्यापि विशेषणस्य साभिप्रायस्य विन्यासे विच्छित्तिविशेषसद्भावात् परिकरत्वोपपत्तेः । यथा वा
अतियजेत निजां यदि देवतामुभयतश्च्यवते जुषतेऽप्यघम् |
क्षितिभृतैव सदैवतका वयं वनवताऽनवता किमहिदहा ।। वाच्यार्थ के, शरीर की रक्षा के लिए पाप करते लोग मूर्खत्वरूप वाच्यार्थ के तथा कवि राजा के गुण कहने में अशक्तत्वरूप वाच्यार्थ के उपस्कारक हो गये हैं। (भाव यह है, तत्तत् विशेष्य जिसके लिए साभिप्राय विशेषण का प्रयोग किया गया है, स्वयं वाच्यार्थ के उपस्कारक होने के कारण तत्तत् विशेषण तथा उनसे व्यंजित व्यंग्याथ भी उसके अंग (उपस्कारक) बन जाते हैं।)
इसलिए इस अलंकार का नाम परिकर है, क्योंकि यहाँ व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ का परिकर (पोषक) पाया जाता है। कुछ विद्वान् इसे अलग से अलंकार नहीं मानते, उनका कहना है कि काव्य में निष्प्रयोजन विशेषण का प्रयोग तो होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि निष्प्रयोजन विशेषण होने पर वहाँ अपुष्टार्थत्व दोष होगा, अतः सप्रयोजन (साभिप्राय) विशेषण का होना अलंकार न होकर दोषाभावमात्र है। यदि परिकर कहीं होगा तो वहीं हो सकता है, जहाँ एक ही विशेष्य के लिए अनेक साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग हो, क्योंकि ऐसे प्रयोग में विशेष चारुता पाई जाती है। इसलिए अनेक साभिप्राय विशेषणों के एक ही विशेष्य के लिए किए गये प्रयोग को ही अलंकारों में गिना गया है। ग्रन्थकार को यह मत अभिमत नहीं। वे कहते हैं कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि अनेक साभिप्राय विशेषणों के प्रयोग में ही परिकर माना जाय । हम देखते हैं कि श्लेष, यमक आदि में अपुष्टार्थदोष के अभाव के कारण जहाँ एक भी विशेषण का साभिप्राय प्रयोग हो, वहाँ चमत्कारविशेष के कारण परिकरत्व की उपपत्ति होती है।
टिप्पणी-जगन्नाथ पंडितराज उक्त पूर्वपक्ष को मानते हैं। वे परिकर में अनेक विशेषणों का साभिप्रायत्व होना आवश्यक मानते हैं। इसका संकेत उनकी निम्न परिभाषा में 'विशेषणानाम्' पद का बहुवचन है।
'विशेषणानां साभिप्रायत्वं परिपाकरः। ( रसगंगाधर पृ० ५१७) साथ ही ये दीक्षित के इस मत का भी खण्डन करते है कि जहाँ इलेष-यमकादि के कारण एक साभिप्राय विशेषण भी पाया जाता हो, वहाँ परिकर मानना ही होगा । (दे० वही पृ० ५१९.५२१ ) जैसे निम्न पद्य में__कृष्ण नन्दादि गोपों से कह रहे हैं :-'जो व्यक्ति अपने निजी देवता को छोड़कर अन्य देवता की पूजा करता है, वह दोनों लोकों से पतित होता है तथा पाप का भागी