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कुवलयानन्दः
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पुरुहूतपूजयुक्तान्नन्दादीन्प्रति भगवतः कृष्णस्य वाक्ये 'गोवर्धनगिरिरेव चास्माकं रक्षकत्वेन दैवतमिति स एव पूजनीयः, न त्वरक्षकः पुरुहूत: ' इत्येवं परम्, वनवतेति गोवर्धनगिरेर्विशेषणं, काननवत्त्वान्निर्झरादिमत्त्वाच्च पुष्पमूल फलतृण जलादिभिरारण्यकानामस्माकमस्मद्धनानां गवां चायमेव रक्षक इत्यभिप्रायगर्भम् । एवमत्र साभिप्रायैकविशेषणविन्यासस्यापि विच्छित्तिविशेषवशादस्य साभिप्रायस्यालङ्कारत्वसिद्धावन्यत्रापि 'सुधांशुकलितोत्तंस' इत्यादौ तस्यात्मलाभो न निवार्यते । अपि च एकपदार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमलङ्कार इति सर्वसंमतं, तद्वदेकस्यापि विशेषणस्य साभिप्रायस्यालङ्कारत्वं युक्तमेव ।। ६२ । २५ परिकराङ्कुरालङ्कारः
साभिप्राये विशेष्ये तु भवेत् परिकराङङ्करः । चतुर्णां पुरुषार्थानां दाता देवश्चतुभुजः ॥ ६३ ॥
बनता है । हम लोग तो वन से युक्त गोवर्धन पर्वत के कारण ही सदैवत हैं ( यही हमारा देवता है ); हमें अपनी रक्षा न करने वाले ( अनवता - अरक्षक ) इन्द्र से क्या मतलब ?
यह इन्द्रपूजा में संलग्न नन्दादि के प्रति कृष्ण की उक्ति है । यहाँ वाच्यार्थ यह है कि 'गोवर्धन पर्वत ही रक्षक होने के कारण हमारा देवता है, अतः वही पूजनीय है, न कि अरक्षक इन्द्र' । यहां 'वनवता' वह पद गोवर्धन पर्वत ( क्षितिभृता ) का विशेषण है । इस पद से यह अभिप्राय व्यंजित होता है कि वनमाला तथा निर्झरों वाला होने के कारण यही हम वनवासियों तथा हमारे धन, गार्यो, को पुष्प, मूल, फल, तृण, जल आदि से रक्षा करता है । हम देखते हैं कि यहाँ एक ही साभिप्राय विशेषण का विन्यास पाया जाता है, किंतु वह भी विशेष चमत्कारजनक है, अतः इस साभिप्राय विशेषण का अलंकारत्व सिद्ध हो ही जाता है। इतना होने पर अन्यत्र भी एक साभिप्राय विशेषण होने पर 'सुधांशुकलितो संसः' आदि स्थलों में परिकरत्व का निवारण नहीं किया जा सकता। साथ ही एक दलील यह भी दी जा सकती है कि जब सभी विद्वान् एकपदार्थहेतुक काव्यलिंग को अलंकार मानते हैं, तो उसी तरह केवल एक ही विशेषण के साभिप्राय होने पर भी अलंकारस्व मानना उचित ही होगा ।
टिप्पणी - एकपदार्थहेतुक काव्यलिंग निम्न पद्य में है। इसकी व्याख्या काव्यलिंग के प्रकरण में देखें:
भस्मोधून भद्रमस्तु भवते रुद्राक्षमाले शुभं,
हा सोपानपरम्परे गिरिसुताकान्तालयालंकृते । अद्याराधनतोषितेन विभुना युष्मत्सपर्या सुखा
लोकोच्छेदिनि मोक्षनामनि महामोहे निलीयामहे ॥
२५. परिकरांकुर अलंकार
६३ - जहाँ विशेष्य का प्रयोग साभिप्राय हो, वहाँ परिकरांकुर अलंकार होता है । जैसे, भगवान् चतुर्भुज चारों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) के देने वाले हैं ।
टिप्पणी- प्रकृतार्थोपपादकार्थव्यञ्जकविशेष्यत्वं परिकराङ्कुरलक्षणम् ।