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समासोक्त्यलङ्कारः
न्तरसाधारण्याच्च 'चन्द्रमः' शब्दगतपुंलिङ्गेन 'ऐन्द्री' शब्दगत स्त्रीलिङ्गेन तत्प्रतिपाद्येन्द्रसंबन्धित्वेन चोपस्कृतादप्रस्तुत परवनितासक्तपुरुषवृत्तान्तः प्रतीयते ।
यथा वा
व्यावलगत्कुचभारमाकुलकचं व्यालोलहारावलि
प्रेङ्खत्कुण्डलशोभिगण्डयुगलं प्रस्वेदिवक्त्राम्बुजम् । शश्वद्दत्तकर प्रहारमधिकश्वासं
रसादेतया
यस्मात्कन्दुक ! सादरं सुभगया संसेव्यसे तत्कृती ॥
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टिप्पणी :- तत्र 'चन्द्रमः' शब्दगतेन पुंलिंगेन नायकत्वाभिव्यक्त्या उपस्कारः । 'ऐन्द्रीति स्वरूपपरं तद्गतेन स्त्रीलिङ्गेन तदर्थस्य नायिकत्वाभिव्यक्त्या 'ऐन्द्री' शब्दप्रतिपाद्येनेन्द्रसंबंधित्वेन च परकीयात्वाभिव्यक्त्येति बोध्यम् । वृत्तान्तो व्यवहारो मुखचुम्बनरूपः । (चन्द्रिका पृ. ६९ )
( भाव यह है, इस उदाहरण में चन्द्रमा का पुंलिंगगत प्रयोग उस पर नायक का व्यवहारसमारोप करता है, इसी तरह 'ऐंद्री' का स्त्रीलिंगगत प्रयोग उसपर नायिका का व्यवहारसमारोप करता है । यहाँ पूर्व दिशा के लिए प्रयुक्त 'इन्द्रस्य इयं स्त्री' (ऐंद्री) इस भाव वाले पद से यह प्रतीत होता है कि वह परकीया नायिका है । चन्द्रमा ( नायक ) परकीया इन्द्रवधू (नायिका) का चुम्बन कर रहा है । इस पद्यार्ध में प्रस्तुत चन्द्र- पूर्वदिशारूप वृत्तान्त के लिए जिन विशेषण- रक्त, मुख, चुम्बति का प्रयोग किया गया है, वे समानरूप से नायक-नायिका - प्रणयव्यापार में भी अन्वित हो जाते हैं । अतः इन समान विशेषणों के कारण ही यहाँ समासोकि हो रही है । 'अयमैन्द्रीदिशायां द्वागुदितो रजनीपतिः' पाठान्तर कर देने पर समासोक्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि यहाँ विशेषणसाम्य का अभाव है । )
टिप्पणी- समासोक्ति का चन्द्रिकाकार द्वारा उपन्यस्त लक्षण यह है
विशेषणमात्र साम्य गम्याप्रस्तुनवृत्तान्तत्वं समासोक्तिलक्षणम् ।
इस लक्षण में 'विशेषणमात्र' के द्वारा इलेष अलंकार का वारण किया गया है । श्लेष तथा समासोक्ति में यह भेद है कि समासोक्ति में केवल विशेषण ही प्रस्तुताप्रस्तुतसाधारण होते हैं, जब कि इलेष में विशेषण तथा विशेष्य दोनों रिलष्ट तथा प्रस्तुताप्रस्तुत साधारण होते हैं । अतः श्लेष की अतिव्याप्ति को रोकने के लिए 'विशेषणमात्रसाम्य' का प्रयोग किया गया है । अथवा जैसे—
नायिका के प्रति अनुरक्त कोई युवक उसके क्रीडाकन्दुक को सम्बोधित कर कह रहा है :- हे कन्दुक, सचमुच तुम धन्य हो कि यह नायिका आदर से प्रेम सहित तुम्हारा सेवन कर रही है, क्योंकि इसका कुचभार विशेष चंचल हो रहा है, इसके केश क्रीडा के आवेश के कारण इधर-उधर बिखर गये हैं, इसका हार हिल रहा है, चंचल कुण्डलों से कपोल सुशोभित हो रहे हैं, मुखकमल में पसीने की बूँदें झलक आई हैं, यह बार-बार हाथ से प्रहार कर रही है, तथा इसका श्वास अधिक चल रहा है ।
( यहाँ 'कन्दुक' का प्रयोग पुंलिंगगत है, सुन्दरी का स्त्रीलिंगगत, अतः तत्तत् विशेषणों की समानता के कारण यहाँ कन्दुक-सुन्दरीगत प्रस्तुत वृत्तान्त से नायकनायिकात अप्रस्तुत वृत्तान्त की व्यञ्जना हो रही है । विशेषणसाम्य के कारण यहाँ नायक के साथ नायिका की विपरीतरति व्यञ्जित हो रही है ।)