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निदर्शनालङ्कारः
स्तलावधिसंस्पर्शमात्रस्य विवक्षितत्वात् । अत्रोदाहरणे पदावृत्तिदीपकाद्विशेषः पूर्ववत्प्रस्तुताप्रस्तुतविषयत्वकृतो द्रष्टव्यः । वैधयेणाप्ययं दृश्यते
कृतं च गर्वाभिमुखं मनस्त्वया किमन्यदेवं निहताश्च नो द्विषः । तमांसि तिष्ठन्ति हि तावदंशुमान यादवायात्युदयाद्रिमौलिताम् ।। ५२ ।।
१९ निदर्शनालङ्कारः वाक्यार्थयोः सदृशयोक्यारोपो निदर्शना ।
यदातुः सौम्यता सेयं पूर्णेन्दोरकलङ्कता ॥ ५३ ॥ क्रिया का कर्ता कैसे बन सकता है, जो चेतन का धर्म है)। इसलिए मंथाचल के पक्ष में 'जानाति' पद से (लक्षणा से) कवि की विवक्षा सिर्फ यह है कि उसने सागर के निम्न तल तक का स्पर्श किया है। (इस प्रकार यहाँ सार-ज्ञान तथा निम्नतलस्पर्श दोनों में बिंब. प्रतिबिंबभाव घटित हो ही जाता है, तथा दृष्टान्त भी घटित होता है।) इस उदाहरण में पदावृत्ति दीपक से यह भेद है कि वहाँ या तो दोनों प्रस्तुत या दोनों अप्रस्तुत का ही उपादान होता है, यहाँ एक (मुरारिवृत्तान्त) प्रस्तुत है, दूसरा (मन्दरवृत्तान्त) अप्रस्तुत ।
टिप्पणी-तथा च धर्मभेदान प्रतिवस्तूपमा, किन्तु सारस्वतसारज्ञानसागराधस्तलावघिसंस्पर्शयोर्बिम्बप्रतिबिम्बभावाद दृष्टान्तालंकार एवेत्याशयः। (चन्द्रिका पृ० ५८) दृष्टान्त का वैधय॑गत प्रयोग भी देखा जाता है:___ कोई मंत्री राजा से कह रहा है :-'हे राजन्, तुमने अपने मन को गर्वाभिमुख बना दिया है (अर्थात् स्वयं मन को गर्वयुक्त नहीं किया है), और क्या चाहिए, हमारे शत्रु ऐसे ही (शस्त्रादि के बिना हो) मार दिये गये (न कि अब मारे जायँगे)। जब तक सूर्य उदयाचल के मस्तक पर उदित नहीं होता, तभी तक अन्धकार खड़ा रह पाता है। .
(यहाँ मन का गर्वाभिमुखीकरण तथा वैरिहनन राजा का धर्म है। इनका वैधयं से 'सूर्य का उदयाचलमस्तक पर न आना' तथा 'अन्धकार की स्थिति रूप सूर्य के धर्म के साथ क्रमशः बिंबप्रतिबिंबभाव पाया जाता है।)
टिप्पणी-अत्र भनोगर्वाभिमुखीकरणवैरिहननयोरंशुमदुदयाचलमस्तकानागमनतमःस्थित्योश्च यथाक्रमं वैधम्र्येण बिंबप्रतिबिंबभावः ।।
(वही पृ०५८) रसिकरंजनीकार का कहना है कि दृष्टान्तालंकार में सर्वत्र मूल में काव्यलिंग अलंकार पाया जाता है। किन्तु इस बात से यह शंका करना व्यर्थ है कि फिर दृष्टान्तालंकार मानना ही व्यर्थ है। यद्यपि दृष्टान्त सर्वत्र काव्यलिंग के द्वारा संकीर्ण होता है तथापि यहाँ दृष्टान्त वाले विशेष चमत्कार की सत्ता होती है, अतः उसका अनुभव होने के कारण इसे अलग से अलंकार मानना ही होगा। जैसे सहोक्ति आदि कई अलंकार सदा अतिशयोक्तिसंकीर्ण ही होते हैं, अतिशयोक्ति के बिना उनकी सत्ता नहीं होती, तथापि उन्हें अलग अलंकार मानने का कविसिद्धान्त है ही; ठीक वैसे ही यहाँ भी दृष्टान्त को अलग ही मानना चाहिए। _ 'सर्वत्र दृष्टान्तस्य काव्यलिंगसंकीर्णतैव। न चासंकीर्णतदुदाहरणाभावेनास्यालंकारत्वं न स्यादिति वाच्यम् । संकीर्णत्वेऽपि तत्कृतविच्छित्तिविशेषस्यानुभूयमानतया अलंकारत्वो. पपत्तेः। सहोक्त्यादीनामतिशयोक्तिविविक्तविषयत्वाभावेऽप्यलंकारान्तरत्वस्य सिद्धान्तस.. म्प्रतिपन्नत्वात् ।'
(रसिकरञ्जनी पृ० ८९ १९. निदर्शना अलंकार ५३-जहाँ दो समान वाक्यार्थों में ऐक्यारोप हो अर्थात् जहाँ उपमेयवाक्यार्थ पर