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निदर्शनालङ्कारः
तथा विषयी ( अरण्यरोदनादि ) का सामानाधिकरण्य पाया जाता है। यह शाब्द होने के कारण इसमें शाब्द मालावाक्यार्थरूपक है :-'अरण्यरुदितं "सेवितः' इत्यादौ सामर्थ्यलभ्यस्य तच्छब्दस्य यच्छब्देन सामानाधिकरण्याच्छाब्दं मालावाक्यार्थरूपकम् । (रत्नाकर पृ० ३७) इसी से आगे वे आर्थे वाक्यार्थरूपक का निम्न उदाहरण देते हैं, जहाँ भी संभवतः कुछ लोग निदर्शना ही मानने का विचार प्रकट करेंगे।
'स वक्तमखिलाशको हयग्रीवाश्रितान् गुणान् ।
योऽम्बुकुम्भैः परिच्छेदं कतुं शक्को महोदधेः ॥' यच्च हयग्रीवगुणवर्णनं तत् समुद्राम्बुकुम्भपरिच्छेद इति प्रतीतेः वाक्यार्थरूपकस्यार्थत्वम् ।
(पृ० ३८) शोभाकरमित्र ने निदर्शना एक ही तरह की मानी है। वे केवल असंभवद्वस्तु सम्बन्ध में ह। निदर्शना मानते हैं :-'असति सम्बन्धे निदर्शना' (सू० १८) ___ इसी सम्बन्ध में एक शास्त्रार्थ चल पड़ा है। अलंकारसर्वस्वकार ने वाक्यार्थनिदर्शना का एक प्रसिद्ध उदाहरण दिया है :
'स्वत्पादनखरतानां यदलककमार्जनम् ।
इदं श्रीखण्डलेपेन पाण्डरीकरणं विधो" इस उदाहरण को लेकर शोभाकरमित्र ने बताया है कि यह उदाहरण वाक्यार्थनिदर्शना का है ही नहीं।
वे बताते हैं कि यहाँ मादनखों का अलक्तकमार्जन तथा चन्द्रमा का श्रीखण्डलेपन इन दोनों वाक्यार्थों में 'इदं' के द्वारा श्रौत सामानाधिकरण्य पाया जाता है, अतः यह वाक्यार्थरूपक ही है, निदर्शना नहीं। यदि यहाँ रूपक न मानेंगे तो 'मुखं चन्दः' जैसे पदार्थरूपक में भी निदर्शना का प्रसंग उपस्थित होगा । इस तरह तो रूपक अलंकार हो समाप्त हो जायगा।
'त्वत्पादनखरवानां "विधोः' इत्यादौ वाक्यार्थयोः सामानाधिकरण्यनिर्देशाच्छौतारो : पसद्भावेन वाक्यार्थरूपकं वक्ष्यत इति निदर्शनाबुद्धिर्न कार्या । अन्यथा 'मुखं चन्द्र' इत्यादौ पदार्थरूपकेऽपि निदर्शनाप्रसंग इति रूपकामावः स्यात्'
(रमाकर पृ० २१) पंडितराज जगन्नाथ ने भी रसगंगाधर में इस प्रकरण को लिया है। वे भी. रत्नाकर की ही दलील देते हैं। वे अलंकारसर्वस्वकार की खबर लेते हैं तथा यहाँ वाक्यापक ही मानते हैं। यदि कोई यह कहे कि रूपक तथा निदर्शना में यह भेद है कि रूपक में बिंबप्रतिषिवभाव नहीं होता, निदर्शना में होता है, अतः यहाँ विंबप्रतिबिंबभाव होने से निदर्शना ही होगी, वाक्यार्थरूपके नहीं, तो यह दलील थोथी है, हम रूपक के प्रकरण में बता चुके हैं कि रूपक में बिंबप्रतिबिंबभाव भी हो सकता है। ऐसा जान पड़ता है कि किसी आलंकारिकंमन्य ने तुम्हें भुलावा दे दिया है कि रूपक में विवप्रतिबिंबभाव नहीं होता 'रूपके बिंबप्रतिबिंबमावो नास्तीति, केनाप्यालंकारिकंमन्येन प्रतारितोऽसि' (रस० पृ० ३०१)। वस्तुतः वहाँ भी विवप्रतिबिंबभाव हो सकता है।
(दे. हमारी टिप्पणी रूपकप्रकरण ) _ 'अलंकारसर्वस्वकारस्तु-त्वत्पाद"विधोः' इति पचं वाक्यार्थनिदर्शनायामुदाजहार। आह च-'यत्र तु प्रकृतवाक्यार्थे वाक्यार्थान्तरमारोप्यते सामानाधिकरण्ये न तत्र सम्बन्धानुपपत्तिमूला निदर्शनैव युक्ता' इति । तत्र। वाक्यार्थरूपकस्य दत्तजलालित्वापत्तेः ।....." रूपके बिम्बनं नास्तीति तु शपथमात्रम्, युक्त्यभावात् । (रस० पृ० ४६१-६२) रसगंगाधरकार ने बताया है कि इस पद्य को यों कर देने से निदर्शना हो सकेगी।
'स्वत्पादनखरनानि यो रजयति यावकैः। इन्दु चन्दनलेपेन पाण्डरीकुरुते हि सः॥' ( वही पृ० ४६३)