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कुवलयानन्दः
अत्र दातृपुरुषसौम्यत्वस्योपमेयवाक्यार्थस्य पूर्णेन्दोरकलङ्कत्वस्योपमानवाक्याथेस्य यत्तद्भयामैक्यारोपः । यथा वा
अरण्यरुदितं कृतं शवशरीरमुर्तितं
स्थलेऽब्जमवरोपितं सुचिरमूषरे वर्षितम् । श्वपुच्छमवनामितं बधिरकर्णजापः कृतो ..
धृतोऽन्धमुखदर्पणो यदबुधो जनः सेवितः॥ अत्राबुधजनसेवाया अरण्यरोदनादीनां च यत्तद्भयामैक्यारोपः ॥ ५३ ।। उपमानवाक्यार्थ का अभेदारोप हो, वहाँ निदर्शना अलंकार होता है, जैसे, दानी व्यक्ति में जो सौम्यता है ठीक वही पूर्ण चन्द्रमा में निष्कलङ्कता है।
यहाँ दानी व्यक्ति की सौग्यतारूप उपमेयवाक्यार्थ तथा पूर्णेन्दु की निष्कलंकतारूप उपमानवाक्यार्थ में यत्-तत् इन दो पदों के द्वारा ऐक्यारोप किया गया है।
टिप्पणी-पंडितराज जगन्नाथ इस लक्षण से सहमत नहीं। उनके मतानुसार निदर्शना में मार्थ अभेद होना जरूरी है, जहाँ श्रौत (शाब्द) अभेद पाया जाता है, वहाँ रूपक ही होगा । अतः रूपक की अतिव्याप्ति के वारण के लिए यहाँ आर्थ अभेद का संकेत करना आवश्यक है। वे स्पष्ट कहते हैं रूपक तथा अतिशयोक्ति से निदर्शना का भेद यह है कि वहाँ क्रमशः शाब्द आरोप तथा अध्यवसान पाया जाता है, जब कि यहाँ आर्थाभेद होता है। ‘एवं चारोपाध्यवसानमार्गबहिर्भूत भार्थ एवाभेदो निदर्शनाजीवितम्'-( रसगंगाधर पृ० ४६३ ) तभी तो पंडितराज निदर्शना का लक्षण यों देते हैं:
'उपात्तयोरर्थयोरार्थाभेद औपम्यपर्यवसायी निदर्शना।' (वही पृ० ४५६)
इसी आधार पर वे 'यहातुः सौम्यता सेयं पूर्णेन्दोरकलंकता' में रूपक ही मानते हैं तथा दीक्षित की इस परिभाषा तथा उदाहरण दोनों का खण्डन करते हैं । (दे० पृ० ४६२ )
अथवा जैसे'जिस व्यक्ति ने मूर्ख की सेवा की, उसने अरण्यरोदन किया है, मुर्दे के शरीर पर उबटन किया है, जमीन पर कमल को लगाया है, उसर जमीन में बड़ी देर तक वर्षा की है, कुत्ते की पूँछ को सीधा किया है, बहरे के कान में चिल्लाया है और अंधे के मुख के सामने दर्पण रक्खा है।'
(यहाँ उपमानरूप में अनेक वाक्याथों का प्रयोग किया गया है, जो निरर्थकता रूप धर्म की दृष्टि से समान है। इन वाक्यार्थों का मूर्ख पुरुष की सेवा रूप उपमेय वाक्यार्थ पर आरोप किया गया है । पहले उदाहरण से इसमें यह भेद है कि वहाँ उपमेय वाक्यार्थ पर एक ही उपमान वाक्यार्थ का ऐक्यारोप पाया जाता है, जब कि यहाँ अनेकों उपमान वाक्यार्थों का ऐक्यारोप वर्णित है। इस प्रकार यह मालारूपा निदर्शना का उदाहरण है।)
यहाँ अबुधजनसेवन तथा अरण्यरोदन आदि का यत्-तत् पदों के प्रयोग के द्वारा ऐक्यारोप वर्णित है।
टिप्पणी-इस सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक होगा कि रत्नाकरकार शोभाकर मित्र ने इस उदाहरण में निदर्शना नहीं मानी है। वे इस उदाहरण में स्पष्टरूपेण मालावाक्यार्थरूपक मानते हैं। उनका कहना है कि यहाँ तत् शब्द तथा यत् शब्द के प्रयोग से विषय (अबुधजनसेवन)