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कुवलयानन्दः
यत्रोपमानोपमेयवाक्ययोर्भिन्नावेव धर्मों बिम्बप्रतिबिम्बभावेन निर्दिष्टौ तत्र दृष्टान्तः । ' त्वमेव कीर्तिमान्' इत्यत्र कीर्ति - कान्त्योर्बिम्बप्रतिबिम्बभावः । यथा वा (रघु० ६।२२ ) -
कामं नृपाः सन्ति सहस्रशोऽन्ये राजन्वती माहुरनेन भूमिम् | नक्षत्रतारामहसंकुलापि ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः ॥
यथा वा
देवीं वाचमुपासते हि बहवः सारं तु सारस्वतं
जानीते नितरामसौ गुरुकुलक्लिष्टो मुरारिः कविः ! अत एव वानरभटैः किं त्वस्य गम्भीरतामापातालनिमग्न पीवरतनुर्जानाति मन्याचलः || नन्वत्रोपमानोपमेयवाक्ययोर्ज्ञानमेक एव धर्म इति प्रतिवस्तूपमा युक्ता । मैवम्; अचेतने मन्थाचले ज्ञानस्य बाधितत्वेन तत्र जानातीत्यनेन सागराध
जहाँ उपमान वाक्य तथा उपमेयवाक्य में भिन्न-भिन्न धर्मों का बिम्बप्रतिबिम्बभाव से निर्देश किया गया हो, वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है। जैसे 'वमेव कीर्तिमान्' इत्यादि उदाहरण में कीर्ति तथा कांति में बिम्बप्रतिबिम्बभाव पाया जाता है ।
टिप्पणी- उपमानोपमेयवाक्यार्थघटक धर्मयोबिम्बप्रतिबिम्बभावो दृष्टान्त इति लक्षणम् । ( चन्द्रिका पृ. ५७ )
अथवा जैसे
सुनन्दा नामक प्रतिहारिणी इन्दुमती से मगधराज का वर्णन कर रही है । यद्यपि इस पृथ्वी पर अनेकों राजा हैं, तथापि इसी राजा के कारण पृथ्वी राजन्वती कही जाती है । यद्यपि रात्रि सैकड़ों नक्षत्र तथा तारों से युक्त होती है, तथापि वह चन्द्रमा के ही कारण ज्योतिष्मती कहलाती है 1
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( यहाँ राजन्वती तथा ज्योतिष्मती में बिम्बप्रतिबिम्बभाव पाया जाता है । पहले उदाहरण से इस उदाहरण में यह भेद है कि वहाँ कीर्ति तथा कांति के बिम्बप्रतिबिम्बभाव के द्वारा उपमेय (राजा) तथा उपमान (चन्द्रमा) के मनोहारित्वरूप सादृश्य की प्रतीति आर्थी है, जब कि इस उदाहरण में राजा तथा चन्द्रमा के प्रशंसनीयत्व (प्राशस्त्य ) रूप सादृश्य की प्रतीति शाब्दी है ।) अथवा जैसे
'वैसे तो अनेकों लोग वाग्देवी सरस्वती की उपासना करते हैं, किन्तु गुरुकुल में परिश्रम से अध्ययन करने वाला अकेला (यह) मुरारि कवि ही सरस्वती के रहस्य (सार) को जानता | अनेकों बन्दरों ने समुद्र को पार किया है, किन्तु इस समुद्र की गम्भीरता को अकेला मन्दराचल ही जानता है, जो अपने पुष्ट शरीर से पाताल तक समुद्र में डूब चुका है ।'
यहाँ उपमेय वाक्य तथा उपमानवाक्य दोनों स्थानों पर 'ज्ञान रूप धर्म' (जानीते, जानाति ) का ही प्रयोग किया गया है, अतः यह शंका होना सम्भव है कि यहाँ दृष्टान्त न हो कर प्रतिवस्तूपमा अलंकार होना चाहिए। इसी शंका का निषेध करते कहते हैं कि इन दोनों वाक्यों में ज्ञान रूप एक ही धर्म का निर्देश पाया जाता है, अतः यहां प्रतिवस्तूपमा होनी चाहिए - ऐसा कहना ठीक नहीं। क्योंकि अचेतन मन्दराचल के साथ 'जानाति' क्रिया का प्रयोग ज्ञान के अर्थ में बाधित होता है ( भला अचेतन पर्वत ज्ञान