________________
तुल्ययोगितालङ्कारः
१४ तुल्ययोगितालङ्कारः वयोनामितरेषां वा धर्मैक्यं तुल्ययोगिता । संकुचन्ति सरोजानि स्वैरिणीवदनानि च ॥ ४४ ।
त्वदङ्गमार्दवे दृष्टे कस्य चित्ते न भासते । हम अलंकारों का नामकरण करते हैं, वहाँ 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' इस न्याय का अनुसरण करते हैं। अतिशयोक्ति से इतर अलंकारों में अतिशयोक्ति निःसन्देह रहती है किंतु वह वहाँ प्रधानतया स्थित नहीं होती। वहाँ चमत्कार का प्रमुख कारण कोई दूसरा ही अलंकार होता है, तथा उसके अंग रूप में अतिशयोक्ति पाई जाती है। अतः उन स्थलों में हम अतिशयोक्ति का नाम कैसे दे सकते हैं । क्योंकि दूसरे अलंकार प्रधान हैं, अतः उन्हीं का नामकरण करना होगा। इसीलिए काव्यप्रकाशकार मम्मटाचार्य ने विशेषालंकार के प्रकरण में यह बताया है कि ऐसे स्थलों पर सर्वत्र अतिशयोक्ति प्राणरूप में विद्यमान होती है, क्योंकि उसके बिना अलंकार नहीं रह पाता।
सर्वत्रैवं विषयेऽतिशयोक्तिरेव प्राणत्वेनावतिष्ठते । तां विना प्रायेणालंकारत्वाभावात् ।
ठीक यही बात भामह ने भी कहीं है, जहाँ उनकी वक्रोक्ति अन्य आलंकारिकों की या कुन्तक की वक्रोक्ति न होकर अतिशयोक्ति का ही दूसरा नाम जान पड़ता है। भामह ने भी वक्रोक्ति (-अतिशयोक्ति) को समस्त अलंकारों का जीवित माना है।
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते।
यत्नोऽस्या कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनयाविना ॥ दण्डी ने भी अतिशयोक्ति को समस्त अलंकारों में निहित माना है :
अलंकारान्तराणामप्येकमाहुः परायणम् । वागीशसहितामुक्तिमिमामतिशयाह्वयाम् ॥ काव्यादर्श (२.२२०)
१४. तुल्ययोगिता अलंकार ४४-जहाँ प्रस्तुतों (वयौँ ) अथवा अप्रस्तुतों में एकधर्माभिसम्बन्ध (धर्मैक्य ) हो, वहाँ तुल्ययोगिता नामक अलंकार होता है, जैसे, चन्द्रोदय के होने पर कमल तथा कुल. टाओं के मुख संकुचित होते हैं।
(यहाँ कमल तथा स्वैरिणीवदन दोनों प्रस्तुत हैं, इनके वर्णन में संकोचक्रियारूप एकधर्माभिसम्बन्ध का उपन्यास किया गया है, अतः यह तुल्ययोगिता है। चन्द्रोदय के समय कुलटाओं के मुख इसलिए संकुचित होते हैं, कि वे अन्धकार में ही अभिसरणादि करना पसंद करती हैं, चन्द्रोदय के कारण उनके स्वैरविहार में विघ्न होता है।)
टिप्पणी-तुल्ययोगिता का लक्षण चन्द्रिकाकार ने यह दिया है :-अनेकप्रस्तुतमात्रसंबढेकचमत्कारिधर्मानेकाप्रस्तुतमात्रसंबद्धकधर्मान्यतरत्वं लक्षणं बोध्यम् । यहाँ अनेक' विशेषण का प्रयोग इसलिए किया गया हे कि 'मुखं विकसितस्मितं वशितवक्रिमप्रेक्षितम्' इत्यादि पद्य में इसकी अतिव्याप्ति न हो सके, क्योंकि वहाँ मुख में अनेक वण्यों के साथ एक ही धर्म का प्रयोग नहीं पाया जाता। साथ ही दीपक अलङ्कार का वारण करने के लिए 'मात्र' शब्द का प्रयोग किया गया हैभाव यह है, तुल्ययोगिता वहीं होगी, जहाँ केवल प्रस्तुतों या केवल अप्रस्तुतों का एकधर्माभिसंबन्ध होगा, जहाँ प्रस्तुत अप्रस्तुत दोनों होंगे वहाँ दीक होगा। लक्षण में 'अन्यतरत्व' शब्द का संनिवेश इसलिए किया गया है कि इस अलंकार के दो भेद होते हैं, एक प्रस्तुतगत तुल्ययोगिता, दूसरी अप्रस्तुतगत तुल्ययोगिता।
(ऊपर वाले कारिकाध का उदाहरण प्रस्तुतगत तुल्ययोगिता का है, अब अप्रस्तुतगत तुल्ययोगिता का उदाहरण देते हैं।)