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कुवलयानन्दः
प्रस्तुताप्रस्तुतानामेकधर्मान्वयो दीपकम् | यथा, कलभ महीपालयोः प्रस्तुताप्रस्तुतयोर्भानक्रियान्वयः । यथा वामणिः शाणोल्लोढः समरविजयी हेतिदलितो
मदक्षीणो नागः शरदि सरितः श्यानपुलिनाः । कलाशेषश्चन्द्रः सुरतमृदिता बालवनिता
तनिम्ना शोभन्ते गलितविभवाश्चार्थिषु नृपाः।। अत्र प्रस्तुतानां नृपाणामप्रस्तुतानां मण्यादीनां च शोभैकधर्मान्वयः। प्रस्तुतैकनिष्ठः समानो धर्मः प्रसङ्गादन्यत्रोपकरोति प्रासादार्थमारोपितो दीप इव रथ्यायामिति दीपसाम्यादीपकम् । 'संज्ञायां च' ( वा० २४५८ ) इति इवार्थे कन् प्रत्ययः । यद्यपि
सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः ।
शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम् ।। प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत पदार्थों का एकधर्मान्वय दीपक कहलाता है जैसे, इस उदाहरण में हाथी तथा राजा रूप प्रस्तुताप्रस्तुत का 'भान' क्रिया रूप एक धर्म के साथ अन्वय किया गया है । अथवा जैसे,
शाण पर उल्लिखित मणि, आयुधों के द्वारा क्षत-विक्षत संग्रामजेता योद्धा, मदजल से क्षीण हाथी, शरद ऋतु में स्वच्छ एवं शुष्क तीरवाली सरिताएँ, कलामात्रावशिष्ट चन्द्रमा, सुरतक्रीडा के कारण म्लान नवयौवना तथा याचकों को समृद्धि देकर गलित-विभव राजा लोग कृशता के कारण सुशोभित होते हैं। ___ यहाँ प्रस्तुत राजा तथा अप्रस्तुत मणि आदि पदार्थों का शोभन क्रिया रूप एकधर्मा. न्वय पाया जाता है। इस अलंकार को दीपक इसलिए कहा गया है, कि यहां प्रस्तुत के लिए प्रयुक्त समान धर्म प्रसंगतः अन्यत्र (अप्रस्तुतों में ) भी अन्वित होता है, यह ठीक वैसे ही है, जैसे महल पर प्रकाश के लिए जलाया गया दीपक गली में भी प्रकाश करता है, अतः दीपक के समान होने से यह दीपक कहलाता है। 'संज्ञायां च' इस वार्तिक के भाधार पर यहाँ 'दीप इव दीपकः' (दीप+कन्) इस इवार्थ में यहाँ कन् नामक तद्धित प्रत्यय पाया जाता है।
(इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार एक शंका उठाकर उसका समाधान करते हैं। शंका यह है कि दीपक अलंकार के नामकरण में दीपक का साम्य प्रवृत्तिनिमित्त होने के कारण यह आवश्यक है कि जहाँ धर्म का पहले प्रस्तुत पदार्थ में अन्वय हो जाय, पश्चात् अन्यत्र (अप्रस्तुतों में) उसका प्रसंगतः अन्वय (प्रसंगोपकारित्व) हो, वहीं यह अलंकार हो सकेगा, फिर तो ऐसे स्थलों पर जहां पहले अप्रस्तुतों के साथ धर्म का अन्वय पाया जाता है, बाद में प्रस्तुत के साथ, वहाँ दीपक कैसे होगा ? इसी का समाधान करते हैं।) __हम देखते हैं कि कई ऐसे स्थल हैं, जहाँ प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत पदार्थों के साथ समान धर्म का अन्वय साथ-साथ ही होता है, जैसे निम्न पद्य में
'इस सुवर्णपुष्पा पृथिवी का चयन तीन लोग ही कर पाते हैं; वीर, प्रसिद्ध विद्वान् , तथा वह व्यक्ति जो सेवा करना जानता है।'
(यहाँ शूर, कृतविद्य तथा सेवनक्रियावित् व्यक्ति इन प्रस्तुताप्रस्तुत पदार्थों के समान धर्म 'सुवर्णपुष्पपृथिवीचयनक्रिया' का एक साथ वर्णन किया गया है।)