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दीपकालङ्कारः
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इत्यत्र प्रस्तुतानाम्प्रस्तुतानां युगपद्धर्मान्वयः प्रतिभाति । 'मदेन भाति कलभ' इत्यत्राप्रस्तुतस्यैव प्रथमं धर्मान्वयः, तथापि प्रासङ्गिकत्वं न हीयते, वस्तुगत्या प्रस्तुतोद्देशेन प्रवृत्तस्यैव वर्णनस्याप्रस्तुतेऽन्वयात् । नहि दीपस्य रथ्याप्रासादयोर्युगपदुपकारित्वेन जामात्रर्थं श्रपितस्य सूपस्यातिथिभ्यः प्रथमपरिवेषणेन च प्रासङ्गिकत्वं हीयते । तुल्ययोगितायां त्वेकं प्रस्तुतम्, अन्यदप्रस्तुतमिति विशेषाग्रहणात् सर्वोद्देशेनैव धर्मान्वय इति विशेषः । अयं चानयोरपरो विशेषः – उभयोरनयोरुपमालङ्कारस्य गम्यत्वाविशेषेऽप्यत्राप्रस्तुतमुपमानं प्रस्तुतमुपमेयमिति व्यवस्थित उपमानोपमेयभावः, तत्र तु विशेषाग्रह - णादैच्छिकः स इति ॥ ४८ ॥
इसी तरह 'मदेन भाति कलभः' वाले उदाहरण में पहले 'कलभ' रूप अप्रस्तुत के साथ शोभनक्रियारूप धर्म का अन्वय होता है, तदनन्तर राजा ( प्रस्तुत ) के साथ । तो ऐसे स्थलों पर धर्म का 'प्रसंगोपकारित्व' कैसे घटित हो सकेगा, जैसे महल का दीपक प्रसंगतः रथ्या को उपकृत करता है ? यह पूर्वपक्षी की शंका है।
(समाधान) यद्यपि 'सुवर्णपुष्पाम्' इत्यादि उदाहरण में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों का धर्मान्वय साथ-साथ ही होता दिखाई पड़ता है, तथा 'मदेन भाति कलभः' में पहले अप्रस्तुत का ही धर्मान्वय पाया जाता है, तथापि इससे प्रस्तुत के धर्म का अप्रस्तुत के लिए प्रासंगिक होना अपास्त नहीं होता । वास्तविकता तो यह है कि प्रस्तुत के लिए प्रयुक्त अप्रस्तुत का पहले अन्वय हो जाता है, किंतु वह अप्रस्तुत प्रस्तुत के उद्देश से ही तो काव्य में वर्णित हुआ है। दीपक एक साथ गली तथा प्रासाद को प्रकाशित करता है, तो इसी कारण से उसका प्रासंगिकत्व नहीं हट जाता, इसी तरह यदि जामाता के लिए बनाये गये सूप को पहले अन्य अतिथियों को रख दिया जाय, तो उन्हें पहले परोस देने भर से खूप का प्रासंगिक नहीं हट जाता। भाव यह है- दीपक वैसे तो महल के लिए जलाया गया है, पर वह साथ-साथ गली को भी प्रकाशित करता है, इसी तरह सूप खास तौर पर
माता के लिए बनाया गया है, पर पहले दूसरे मेहमानों को परोस दिया गया- तो क्या इतने भर से इसका प्रसंगोपकारित्व लुप्त हो जायगा ? अतः अप्रस्तुत के साथ-साथ ही प्रस्तुत का एकधर्माभिसम्बन्ध वर्णित करने से या अप्रस्तुत के साथ धर्म का अन्वय पहले होने भर से, वहाँ दीपक अलंकार न होगा, ऐसी शंका करना व्यर्थ है । तुल्ययोगिता अलंकार में इस तरह की कोई विशेषता नहीं पाई जाती कि एक पदार्थ प्रस्तुत हो और दूसरा अप्रस्तुत ( क्योंकि वहाँ या तो सभी प्रस्तुत होते हैं, या सभी अप्रस्तुत ), अतः सभी के साथ समान रूप से धर्म का अन्वय हो जाता है, दीपक से तुल्ययोगिता में यह भेद पाया जाता है । साथ ही इन दोनों में दूसरा भेद यह भी है । वैसे तो तुल्ययोगिता तथा दीपक दोनों ही अलंकारों में उपमालंकार व्यंग्य रहता है, इस समानता के होते हुए भी दीपक अलंकार में ( यहाँ ) अप्रस्तुत उपमान होता है, प्रस्तुत उपमेय, इस प्रकार दोनों में उपमानोपमेयभाव पाया जाता है, तुल्ययोगिता में ऐसा कोई भेदक नहीं पाया जाता, अतः किसे उपमान माना जाय तथा किसे उपमेय, यह कवि की इच्छा पर निर्भर (ऐच्छिक) है ।