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उत्प्रेक्षालङ्कारः
'मन्ये-शङ्के-ध्र-प्रायो-नूनमित्येवमादिभिः ।
उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिवशब्दोऽपि तादृशः' । इत्युत्प्रेक्षाव्यञ्जकत्वेन परिगणितानां शब्दानां प्रयोगे वाच्याः। तेषामप्रयोगे गम्योत्प्रेक्षा। यथात्वत्कीर्तिभ्रंमणश्रान्ता विवेश स्वर्गनिम्नगाम् ।। ३३-३५ ।।
उत्प्रेक्षा केवल इतने ही प्रकार की होती हैं। ये सभी दो तरह की होती हैं:वाच्योत्प्रेक्षा तथा गम्योत्प्रेक्षा । जहाँ उत्प्रेक्षाध्यक्षकों की कोटि में परिगणित शब्दों में से किसी का प्रयोग हो, वहाँ वाच्योत्प्रेक्षा होती है। जैसा कि कहा है-'मन्ये, शंके, ध्रुवं, प्रायः' नूनं इत्यादि शब्दों के द्वारा उत्प्रेक्षा की व्यंजना की जाती है तथा 'इव' शब्द भी ऐसा (उत्प्रेक्षाध्यक्षक) ही है। इनमें से किसी शब्द का प्रयोग न होने पर गम्योत्प्रेक्षा होती हैं। जैसे इस उदाहरण में-'हे राजन् , तुम्हारी कीर्ति घूमते-घूमते थककर आकाश गंगा में मिल गई।' (यहाँ कीर्ति के स्वगंगा में प्रवेश की सम्भावना में वस्तूत्प्रेक्षा है, तथा संसार में घूमने से थकने की संभावना में हेतूप्रेक्षा की गई है।)
टिप्पणी-उत्प्रेक्षा के दो भेद माने जाते हैं-वाच्या तथा प्रतीयमाना। अतः यह शंका होनी आवश्यक है कि प्रतीयमाना को अलंकार मानना ठीक नहीं, क्योंकि वहाँ तो व्यंग्य होने के कारण वह ध्वनि में अन्तर्भावित हो जायगी। इसका निराकरण करते हुए रसिकरंजनीकार गंगाधर ने बताया है कि जहाँ उत्प्रेक्षाप्रतीति के बिना वाक्याथे ठीक नहीं बैठ पाता, वहाँ वह उत्प्रेक्षा अलंकार वाच्यार्थ का उपस्कारक होने के कारण गुणीभूत हो जाता है। 'त्वत्कीर्ति' इत्यादि उदाहरण में 'श्रान्ता इव' (मानो थककर ) इस अर्थ की प्रताति के बिना वाक्याथे संगत नहीं बैठ पाता। इसलिए यह उत्प्रेक्षा ध्वनि में कैसे अन्तर्भावित हो सकती है। वहाँ तो व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ का उपस्कारक नहीं होता। उत्प्रेक्षाध्वनि तो वहाँ होगी जहाँ वाक्यार्थ स्वत: पर्यवसित हो जाता। न्तर शब्दशक्ति या अर्थशक्ति के द्वारा उत्प्रेक्षा की प्रतीति हो। जैसे 'केशेषु."संस्थापितः' में, जहाँ वाक्याथे पूर्ण हो जाने पर भी इस बात की व्यंजना होती है कि 'राजा के द्वारा जयश्री का सुरतार्थ केशग्रहण करने पर उसे रति करते देखकर मानो कामोद्दीप्त हुई गुफाएँ राजा के शत्रुओं को अपने कंठ में ग्रहण करती हैं ( मानो आलिंगन कर लेती हैं)। यह उत्प्रेक्षाध्वनि वाच्यार्थशक्ति से अनुप्राणित होती है ।
'ननु, प्रतीयमानोस्प्रेक्षायाः कथमलङ्कारवर्गे परिगणनं, व्यंग्यतया तस्याः ध्वनावन्तर्भावादिति चेन्न । व्यंग्यत्वेऽपि नास्याः ध्वनावन्तर्भावः। यत्र हि उत्प्रेक्षाप्रतीतिमन्तरेण न वाक्यार्थनिर्वाहः तत्र प्रतीयमानाया अपि तस्या वाच्यार्थोपस्कारस्वेन गुणीभावात् । न हि 'स्वकीर्तिर्धमणश्रान्ते' स्यत्र श्रान्तेवेति इवार्थप्रतीतिमन्तरेण वाक्यार्थपरिपोषः । अतः प्रतीयमानोत्प्रेक्षायाः न ध्वनावन्तर्भावः। यत्र पुनः पर्यवसिते वाक्याथै शब्दशक्त्य. र्थशक्तिभ्यामुत्प्रेक्षाभिव्यक्तिस्तत्रैवोत्प्रेक्षाध्वनिः। यथा 'केसेसु बलामोडिअतेण समरम्मि जअसिरी गहिआ। जह कंदारहि विहुरा तस्स दिलं कण्ठअम्मि संठविआ ॥ केशेषु बलास्कृत्य तेन समरे जयश्रीहीता। तथा कंदराभिर्विधुरास्तस्य दृढं कण्ठे संस्थापिताः॥ इति। वाक्यार्थबोधे पर्यवसिते जयश्रीकेशग्रहावलोकनोद्दीपितमदना इव कन्दरास्तान्विधुरान्कण्ठे गृहन्तीवेत्युत्प्रेक्षाध्वनिरर्थशक्त्युद्भवोऽनुरणनरूप इति । ( रसिकरंजनी टीका पृ० ६७)