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अतिशयोक्त्यलङ्कारः
अग्रे शैलौ सुकृतिसुगमौ चन्दनच्छन्नदेशौ
तत्रत्यानां सुलभममृतं संनिधानात्सुधांशोः ।। अत्र वाप्यादिशब्दै भिप्रभृतयो निगीर्णाः। अत्रातिशयोक्तौ रूपकविशेषणं रूपके दर्शितानां विधानामिहापि संभवोऽस्तीत्यतिदेशेन प्रदर्शनार्थम् । तेनात्राप्यभेदातिशयोक्तिस्ताद्रूप्यातिशयोक्तिरिति द्वैविध्यं द्रष्टव्यम् । तत्राप्याधिक्यन्यूनताविभागश्चेति सर्वमनुसंधेयम् । छोटी सी पगडंडी (काली रोमावली) दिखाई दे रही है, जो सोने की सीढियों (त्रिवलि) तक जा रही है। इसके आगे चंदन के द्वारा ढके हुए दो पर्वत (स्तन) हैं, जहाँ पुण्यशाली व्यक्ति ही पहुँच सकते हैं । जो व्यक्ति इन पर्वतों तक पहुँच जाते हैं, उन्हें चन्द्रमा (मुख) के समीप होने से अमृत (अधररस) की प्राप्ति सुख से हो सकती है। __यहाँ वापी, गगन, सूचमपद्या, सोपानाली, शैल, अमृत तथा सुधांशु रूप विषयी (उपमानों) के द्वारा क्रमशः नाभि, मध्यभाग, रोमावलि, त्रिवलि, स्तन, अधररस तथा मुख रूप विषय (उपमेयों) का निगरण कर लिया गया है। इस भेदे अभेदरूपा अतिश. योक्ति को रूपकातिशयोक्ति इसलिए कहा गया है कि 'रूपक' विशेषण के प्रयोग के द्वारा इस बात का निर्देश करना अभीष्ट है कि रूपक में प्रदर्शित भेद यहाँ भी हो सकते हैं। अतः यहाँ इस अलङ्कार के उद्देश्य (नाम) में 'रूपक' का प्रयोग अतिदेश (सादृश्य) के आधार पर उक्त तथ्य का निर्देश करने के लिये किया गया है। इसलिए जिस प्रकार रूपक में अभेदरूपक तथा ताप्यरूपक दो भेद माने गये हैं, वैसे ही यहाँ भी अभेदातिशयोक्ति तथा ताप्यातिशयोक्ति ये दो भेद माने जाने चाहिए। इसी तरह जैसे रूपक में आधिक्य तथा न्यूनता का विभाग बताया गया है, वैसे ही यहाँ भी यह भेद मानना चाहिए।
टिप्पणी-अप्पय दीक्षित के मतानुसार रूपकातिशयोक्ति में भी विषय्यभेद पाया जाता है । नव्य आलंकारिक इस मत से सहमत नहीं हैं। उनके मतं से अतिशयोक्ति में खास चीज विषयी के द्वारा विषय का निगरण होता है । अतः निगरण में सर्वत्र विषय की प्रतीति विषयितावच्छेदकधर्म के रूप में होती है। ( यथा मुख की प्रतीति चन्द्रत्वावच्छेदकधर्मरूपेण होती है ), विषय्यभिन्नत्व (विषयी से अभिन्न होने ) के रूप में नहीं। अतः अप्पय दीक्षित का अभेद मानकर रूपक की समस्त विधाओं की यहाँ कल्पना करना व्यर्थ है । इस मत का संकेत करते पंडितराज लिखते हैं:___ 'एवं च निगरणे सर्वत्रापि विषयितावच्छेदकधर्मरूपेणैव विषयस्य भानम्, न विषय्यभिन्नत्वेनेति स्थिते 'रूपकातिशयोक्तिः स्यान्निगीर्याध्यवसानतः' इत्युक्त्वा 'अत्रातिशयोक्ती रूपकविशेषणं रूपके दर्शितानां विधानामिहापि संभवोऽस्तीत्यतिदेशेन प्रदर्शनार्थम् तेनाब्राप्यभेदातिशयोकिस्ताद्रप्यातिशयोक्तिरिति' कुवलयानन्दे यदुक्तं तन्निरस्तम्' इति नव्या।'
(रसगंगाधर पृ० ४१४) प्राच्य आलंकारिक अतिशयोक्ति में भी विषय्यभेद मानते हैं । यह अवश्य है कि यहाँ प्रधानता (विधेयता) निगरण की हो होती है। यही रूपक से इसकी विशिष्टता बताता है। अध्यवसाय (विषय्यभेदप्रतीति) यहाँ सिद्ध होता है, उत्प्रेक्षा की भाँति साध्य नहीं होता, साथ ही यह अध्यवसाय निश्चयात्मक होता है, जब कि उत्प्रेक्षा में संभावना मात्र होती है, अतः इस दृष्टि से यह उत्प्रेक्षा से विशिष्ट है। रूपक से इसका यह भेद है कि यहाँ विषयी के द्वारा निगीर्ण विषय में अध्यवसाय (विषय्यभेदप्रतिपत्ति) होता है।