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[८१ ] पर्यायोक तथा अप्रस्तुतप्रशंसा:-र्यायोक्त में वाच्य तथा व्यंग्य दोनों प्रस्तुत होते है, अप्रस्तुतप्रशंसा में वाच्यार्थ प्रस्तुत होता है, व्यंग्यार्थ अप्रस्तुत । ध्वनिवादियों के मतानुसार पर्यायोक्त में व्यंग्यार्थ सदा वाच्यार्थोपस्कारक होता है जब कि अप्रस्तुतप्रशंसा में वाच्या व्यंग्यपरक होता है।
पर्यायोक तथा प्रस्तुतांकुर:-कार्यकारणपरक प्रस्तुतांकुर तथा पर्यायोक्त में मम्मट, रुय्यक आदि कोई भेद नहीं मानते। दीक्षित के मत से पर्यायोक्त में केवल व्यंग्यार्थ का अन्य प्रकार से अभिधान पाया जाता है तथा वाच्यार्थ एवं व्यंग्याथ में कार्यकारण भाव नहीं रहता, जब कि प्रस्तुतांकुर में दोनों अर्थों में कार्यकारणभाव होता है तथा दोनों प्रस्तुत होते हैं।
पर्यायोक्त तथा व्याजस्तुति :-इन दोनों अलंकारों में यह समानता है कि यहाँ वाच्यार्थ से संश्लिष्ट व्यंग्या की प्रतीति होती है तथा दोनों में भंग्यंतराश्रय पाया जाता है। भेद यह है कि १. पर्यायोक्ति में वाच्य तथा व्यंग्य में कार्यकारण ( अथवा अन्य कोई ) सम्बन्ध पाया जाता है, जब कि व्याजस्तुति में निन्दा-स्तुति या स्तुति-निंदा सम्बन्धं पाया जाता है; २. इस दृष्टि से पर्यायोक्त को एक महाविषय माना जा सकता है, जिसका एक भेद व्याजस्तुति है, जो स्वयं एक स्वतन्त्र अलंकार बन बैठा है।
(२१) व्याजस्तुति-व्याजनिन्दा म्याजस्तुतिः
(१) व्याजस्तुति में दो अर्थ होते हैं, एक वाच्यार्थ दूसरा व्यंग्यार्थ । (२) वाच्यार्थ स्तुतिपरक होने पर व्यंग्यार्थ निंदापरक होता है, वाच्यार्थ निंदापरक होने पर
व्यंग्यार्थ स्तुतिपरक होता है। (३) प्रकरण के कारण सहृदय श्रोता को स्तुतिपरक या निन्दापरक वाच्यार्थ बाधित प्रतीत
होता है, यही कारण है कि सहृदय उससे विरुद्ध व्यंग्याथ की प्रतीति कर पाता है। (४) वाच्यरूप स्तुतिनिन्दा इतनी स्फुट होती है कि उससे सहृदय को निन्दास्तुतिरूप व्यंग्या की प्रतीति हो जाती है। व्याजस्तुति में ध्वनित्व इसलिए नहीं माना जा सकता कि यहाँ वाच्या थेबाध के कारण अपरार्थ प्रतीति होती है, जब कि ध्वनि में व्यंग्यार्थ प्रतीति वाच्यार्थवाध के बिना होती है । इस सम्बन्ध में इतना संकेत कर दिया जाय कि व्याजस्तुति के अपरार्थ को प्रायः सभी आलंकारिक व्यंग्यार्थं मानते हैं, केवल शोभाकर मित्र एक ऐसे आलंकारिक हैं, जिन्होंने वाच्यार्थबाध होने के कारण यहाँ विपरीतलक्षणा मानकर अपरार्थ को लक्ष्यार्थ माना है।
(५) दीक्षित ने व्याजस्तुति के पाँच भेद माने हैं :-(१) एकविषयक निन्दा से स्तुति की व्यञ्जना, (२) एकविषयक स्तुति से निंदा की व्यञ्जना, (३) मिन्नविषयक निन्दा से स्तुति की व्यञ्जना, (४) भिन्नविषयक स्तुति से निंदा की व्यजना, (५) भिन्नविषयक स्तुति से स्तुति की व्यजना। न्याजनिन्दा:(१) व्याजनिन्दा व्याजस्तुति के पत्रम प्रकार का उलटा है, जहाँ मिन्नविषयक निन्दा से
निंदा की व्यञ्जना पाई जाती है। (२) प्राचीन आलंकारिकों ने व्याजनिंदा अलंकार नहीं माना है। पण्डितराज आदि नीन्य
आलंकारिकों ने दीक्षित के इस अलंकार का खण्डन किया है। ६ कु० भू०