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रूपकालङ्कारः
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अत्र 'त्वं सेतुमन्थकृत्' इति सेतोर्मन्थनस्य च कर्त्रा पुरुषोत्तमेन सह वर्णनीयस्य तादात्म्यमुक्त्वा तथापि त्वदागमनं सेतुबन्धाय वा मन्थनाय वेति समुद्रेण न भेतव्यम् | द्वीपान्तराणामपि त्वद्वशंवदत्वेन पूर्ववद्वीपान्तरे जेतव्याभावात् प्राप्तलक्ष्मीकत्वेन मन्थनप्रसक्त्यभावाच्चेति पूर्वावस्थात उत्कर्षविभावनादधिकाभेदरूपकम् |
किं पद्मस्य रुचिं न हन्ति नयनानन्दं विधत्ते न किं
वृद्धि वा झषकेतनस्य कुरुते नालोकमात्रेण किम् | वक्त्रेन्दौ तव सत्ययं यदपरः शीतांशुरुज्जृम्भते
दर्पः स्यादमृतेन चेदिह तदप्यस्त्येव बिम्बाधरे ॥
अत्र 'अपरः शीतांशुः' इत्यनेन वक्त्रेन्दोः प्रसिद्धचन्द्राद्भेदमाविष्कृत्य तस्य च प्रसिद्धचन्द्रकार्यकारित्वमात्रप्रतिपादनेनोत्कर्षापकर्षयोर प्रदर्शनादनुभयताद्रूप्य रूपकम् ।
यहाँ 'तुम सेतुमन्थकृत् हो' इस उक्ति के द्वारा कवि ने सेतुबन्धन तथा समुद्रमंथन करनेवाले पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु के साथ वर्णनीय राजा का तादात्म्य वर्णित किया है । इतना होते हुए भी कवि ने, समुद्र को तुमसे डरने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि तुम्हारा आगमन सेतुबन्धन या समुद्रमंथन के लिए नहीं हुआ है-इस उक्ति का भी विधान किया है । इस उक्ति के समर्थन के लिए कवि ने दो हेतु दिये हैं, प्रथम तो इस राजा के लिए कोई भी अन्य द्वीप अवशंवद नहीं है, जब कि पहली अवस्था ( रामावस्था ) में विष्णु के लिए द्वीपान्तर ( लंका) जीतने को बाकी था, यहाँ इस नयी अवस्था में किसी अन्यदेश को जीतना बाकी नहीं है, साथ ही इस नई अवस्था में ( राजरूप ) विष्णु ने लक्ष्मी को भी प्राप्त कर रखा है, अतः समुद्रमंथन के प्रति उनका व्यस्त होना भी अनावश्यक है, इसलिए यहाँ भी पूर्वावस्था से उत्कर्षता पाई जाती है। इस उदाहरण में राजरूप विष्णु की नई अवस्था में केवल विष्णुरूप पर्वावस्था से उत्कर्ष बताया गया है, अतः यह अधिकाभेद रूपक का उदाहरण है ।
अभेदरूपक के तीनों भेदों के बाद अब ताद्रूप्यरूपक के तीनों भेदों को लेते हैं ।
कोई कवि नायिका के मुखचन्द्र की शोभा का वर्णन कर रहा है । हे सुन्दरि, तुम्हारे मुखचन्द्र के होते हुए यह दूसरा चन्द्रमा ( शीतांशु ) प्रकाशित होता है, तो क्या यह कमल की शोभा का अपहरण नहीं करता, क्या यह नेत्रों को आनन्दित नहीं करता, क्या यह देखने भर से कामदेव ( चन्द्रपक्ष में, समुद्र - झषकेतन ) की वृद्धि नहीं करता ? यदि चन्द्रमा को अमृत का घमण्ड हो, तो वह भी इस मुखरूपी चन्द्रमा के बिम्ब के समान अधरोष्ठ में विद्यमान है ही ।
यहाँ 'अपरः शीतांशुः' इस उक्ति के द्वारा प्रसिद्ध चन्द्र से मुखचन्द्र का भेद बताकर उसमें केवल प्रसिद्ध चन्द्र के गुणों का ही प्रतिपादन किया गया है । इस उक्ति में विषय (मुख) काविषयी (चन्द्र) से न तो उत्कर्ष ही बताया गया है, न अपकर्ष हो, इसलिए अनुभवताद्रूष्यरूपक का उदाहरण है । ( इस पद्य में 'झषकेतनस्य' में श्लेष है, जो समुद्र एवं कामदेव का अभेदाध्यवसाय स्थापित करता है, 'बिंबाधर' में उपमा है। इस प्रकार यह अतिशयोक्ति तथा उपमा दोनों रूपक के अंग हैं, अतः यहाँ अंगांगिभाव सङ्कर है। )