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रूपकालङ्कारः
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धमपि प्रत्येकं त्रिविधम् । प्रसिद्ध विषय्याधिक्यवर्णनेन तन्न्यूनत्ववर्णनेनानुभयोक्त्या चैवं रूपकं षड् विधम् । 'अयं हि ' इत्यादिसार्धश्लोके ना भेदरूपकाणि, 'अस्या मुखेन्दुना' इत्यादिसार्धश्लोकेन ताद्रूप्यरूपकाणि, आधिक्यन्यूनत्वानु भयोक्त्युद्देशक्रमप्रातिलोम्येनोदाहृतानि । 'येन दग्धा' इति विशेषणेन वर्णनीये राज्ञि प्रसिद्ध शिवाभेदानुरञ्जनाच्छिवस्य पूर्वावस्थातो वर्णनीयराजभावावस्थायां न्यूनत्वाधिक्ययोरवर्णनाच्चानुभया भेदरूपकमाद्यम् । तृतीयलोचनप्रहाणोक्त्या पूर्वावस्थातो न्यूनताप्रदर्शनान्न्यूना भेदरूपकं द्वितीयम् । न्यूनत्ववर्णनमप्यभेददाढपादकत्वाश्च मत्कारि । विषमदृष्टित्व परित्यागेन जगद्रक्षकत्वोक्त्या शिवस्य पूर्वावस्थातो वर्णनीयराज भावावस्थायामुत्कर्षविभावनादधिका भेदरूपकं तृतीयम् । एवमुत्तरेषु ताद्रूप्यरूपकोदाहरणेष्वपि क्रमेणानुभयन्यूनाधिकभावा उन्नेयाः । अनेनैव क्रमेणोदाहरणान्तराणि -
चन्द्रज्योत्स्ना विशदपुलिने सैकतेऽस्मिञ्छरवा वाद्यूतं चिरतरमभूत्सिद्धयूनोः कयोश्चित् । को वक्ति प्रथमनिहतं कैटभं, कंसमन्य
कर दिया जाता है । इस प्रकार सर्वप्रथम रूपक दो तरह का होता है - अभेदरूपक, तथा तादृष्यरूपक | ये दोनों फिर तीन-तीन तरह के होते हैं । कविपरंपरासिद्ध विषयी से विषय के आधिक्य वर्णन से, उसके न्यूनत्ववर्णन से, तथा अनुभयवर्णन से, इस प्रकार रूपक छः तरह का होता है । 'अयं हि' इत्यादि डेढ़ श्लोक के द्वारा अभेदरूपक के तीनों भेद उदाहृत किये गये हैं । 'अस्था मुखेन्दुना' इत्यादि डेढ़ श्लोक के द्वारा ताद्रूप्यरूपक के तीनों भेदों के उदाहरण दिये गये हैं । इन उदाहरणों में प्रातिलोम्य (विपरीत क्रम) से आधिक्य, न्यूनत्व तथा अनुभय उक्ति के उदाहरण दिये गये हैं, अर्थात् क्रम से पहले अनुभय उक्ति का, तदनन्तर न्यूनत्व उक्ति का, फिर आधिक्य उक्तिका उदाहरण है । 'अयं हि धूर्जटिः' इत्यादि श्लोकार्ध में 'येन दग्धाः' इस विशेषण के द्वारा वर्णनीय (उपमेयभूत) राजा में कविप्रसिद्ध शिव का अभेद स्थापित कर दिया गया है, ऐसा करने पर शिव की पूर्वावस्था ( उपमानावस्था) तथा वर्णनीय राजा बन जाने की अवस्था ( उपमेयाबस्था ) में किसी न्यूनत्व या आधिक्य का वर्णन नहीं किया गया है, अतः यह अनुभय कोटि का अभेदरूपक है । दूसरे लोकार्ध ('अयमास्ते विना' आदि ) में शिव के तीसरे नेत्र की रहितता बताकर पहली अवस्था से इस उपमेयावस्था की न्यूनता बताई गई है, इसलिए यह न्यूनत्व उकि वाला अभेदरूपक है । यह न्यूनत्ववर्णन भी विषयी तथा विषय की अभिन्नता को ढ करता है, अतः चमत्कारोत्पादक है । तीसरे श्लोकार्ध ( 'शम्भुविश्व' इत्यादि) में शिव ने विषम दृष्टि छोड़ दी है तथा वे विश्व के रक्षक हैं इस उक्ति के द्वारा शिव की पूर्वावस्था से वर्णनीय राजा बन जाने की अवस्था में उत्कृष्टता बताई गई है, अतः यहाँ आधिक्य-उक्ति वाला अभेदरूपक है । इसी प्रकार बाकी तीन लोकाध में ताद्रूप्यरूपक की अनुभय, न्यूनत्व तथा आधिक्य की उक्तियाँ क्रमशः देखी जा सकती हैं। इसी क्रम से और उदाहरण दिये जा रहे हैं ।
कोई कवि किसी राजा की प्रशंसा में उसे स्वयं भगवान् विष्णु का अवतार बताता कह रहा है: - 'हे राजन्, सरयू नदी के चन्द्रमा की ज्योत्स्ना के समान श्वेत इस रेतीले तट पर किन्हीं दो युवक सिद्धों में बड़ी देर तक विवाद होता रहा । उनमें से एक कहता
२ कुव०