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रूपकालङ्कारः
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९ रूपकालङ्कारः
विषय्य भेदताद्रूप्यरञ्जनं रूपकं
अयं हि धूर्जटिः साक्षाद्येन दग्धाः पुरः क्षणात् । अयमास्ते विना शम्भुस्तार्तीयीकं विलोचनम् ॥ १८ ॥ शम्भुर्विश्वमवत्यद्य स्वीकृत्य समदृष्टिताम् । अस्या मुखेन्दुना लब्धे नेत्रानन्दे किमिन्दुना ॥ १९॥ साध्वीयमपरा लक्ष्मीरसुधासागरोदिता । कलङ्किनश्चन्द्रान्मुखचन्द्रोऽतिरिच्यते ॥ २० ॥
विषयस्य यत् । तत्त्रिधाधिक्यन्यूनत्वानुभयोक्तिभिः ॥ १७ ॥
अयं
वामन ने उपमान कैमथ्ये वाले प्रतीप में उपमान का आक्षेप मानकर इसे आक्षेप अलंकार की कोटि में माना
( काव्यलंकार सूत्र ४.३.२७ )
५. रूपक अलङ्कार
१७, १८-जहाँ विषय ( उपमेय ) में विषयी ( उपमान ) का अभेद एवं ताद्रूष्य वर्णित किया जाय, वहां रूपक अलङ्कार होता है । यह रूपक तीन प्रकार का होता है उपमान का आधिक्यरूप, न्यूनत्वरूप तथा अनुभयरूप । इन्हीं के क्रमशः ये उदाहरण हैं: - यह (राजा) साक्षात् शिव है, क्योंकि इसने (शत्रु के ) पुरों (नगरों, त्रिपुर ) को जला दिया है। यह राजा तृतीय नेत्र से रहित शिव है। यह राजा शिव ही है, जिन्होंने समदृष्टि (तृतीय नेत्र- त्रिषम नेत्र का अभाव ) को धारण कर विश्व की रक्षा करने का बीड़ा उठाया है । इस नायिका के मुखरूपी चन्द्रमा से ही नेत्रानन्द प्राप्त होने पर फिर चन्द्रमा की क्या आवश्यकता है । यह सुन्दरी दूसरी लक्ष्मी ही है, जो सुधासागर से उत्पन्न नहीं हुई है । यह मुखरूपी चन्द्रमा कलङ्की चन्द्रमा से बढ़ कर है ।
टिप्पणी- रूपक का लक्षण:
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'उपमानकैमर्थ्यस्योपमानाचेपश्चात्क्षेपः ।
'उपात्तबिंबाविशिष्टविषयधर्मिकाहार्यारोपनिश्चयविषयीभूतमुपमानाभेदताद्रूप्यान्यतरद्रूपकम् ।
इस लक्षण में अतिशयोक्ति का वारण करने के लिए 'उपात्त' पद के द्वारा विषय का विशेषण उपन्यस्त किया गया है, क्योंकि अतिशयोक्ति में 'विषय' ( उपमेय ) अनुपात्त होता है । इस लक्षण में 'आरोप' पद का प्रयोग निषेध के अंग के रूप में नहीं किया गया है, अतः अपहृति की अतिव्याप्ति नहीं होगी, क्योंकि अपहृति में निषेध विषयक आरोप होता है । भ्रांति का वारण करने के लिए 'आहार्य' पद का प्रयोग किया गया है, क्योंकि भ्रांति में मिथ्याज्ञान अनाहार्य होता है, जब कि यहाँ विषय पर विषयी का आरोप कल्पित ( आहार्य ) होता है। निदर्शना का वारण करने के लिए 'आहार्य' पद का प्रयोग किया गया है, क्योंकि भ्रांति में मिथ्याज्ञान अनाहार्य होता है, जब कि यहाँ विषय पर विषयों का आरोप कल्पित ( आहार्य ) होता है । निदर्शना का वारण करने के लिए यहाँ 'बिंबविशिष्ट' यह विषय का विशेषण दिया गया है, क्योंकि निदर्शना में बिंबप्रतिबिंब - भाव होता है, यहाँ नहीं, यहाँ आरोप्यारोपकभाव होता है । संशय तथा उत्प्रेक्षा का निरास करने के लिए 'निश्चय' पद का प्रयोग किया गया है, क्योंकि वहाँ निश्चय ज्ञान नहीं होता, शंशय ( संदेह ) में चित्तवृत्ति दोलायित रहती है, जब की उत्प्रेक्षा में संभावना की जाती है। इस संबन्ध में एक प्रश्न उठता है । निदर्शना का वारण करने के लिए 'बिंबाविशिष्ट' का प्रयोग किया गया है,