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कुवलयानन्दः
यथा वा-(नै० १-१४)
तदोजसस्तद्यशसः स्थिताविमौ
वृथेति चित्ते कुरुते यदा यदा । तनोति भानोः परिवेषकैतवा.
। त्तदा विधिः कुण्डलनां विधोरपि ॥ केचिदनन्वयोपमेयोपमाप्रतीपानामुपमाविशेषत्वेन तदन्तर्भावं मन्यन्ते ।
अन्ये तु पञ्चमं प्रतीपप्रकारमुपमानाक्षेपरूपत्वादाक्षेपालङ्कारमाहुः ।। १६ ।। होते हैं, अतः वे अनर्थक कैसे हो सकते हैं । इस शंका का निराकरण करने के लिए ही बताते हैं कि समस्त उपमानों का वास्तविक लक्ष्य उपमेय ही होता है, अतः उपमान की व्यर्थता बताई जा सकती है। यह व्यर्थता एक तरह से उपमान की प्रतिकूलता ही है। उपमान के प्रतिकूल होने के कारण ही यह प्रकारविशेष भी प्रतीप का ही एक भेद है। पंचम प्रतीप के उदाहरण के रूप में नैषध का निम्न पद्य उपस्थित किया जा सकता है:___'राजा नल के तेज तथा यश के विद्यमान होने पर सूर्य तथा चन्द्रमा व्यर्थ हैं-जब कभी ब्रह्मा इस प्रकार का विचार मन में करता है, तभी वह सूर्य तथा चन्द्रमा की वैयर्थ्य सूचक रेखा को परिधि (परिवेष) के व्याज से निमित कर देता है।'
यहाँ नल के तेज तथा यश के उपमानरूप सूर्य और चन्द्रमा को व्यर्थ बताया गया है। यह पञ्चम प्रकार का प्रतीप अलङ्कार है। सूर्य, चन्द्रमा का कार्य प्रताप तथा धवली. करण है। उस कार्य को नल के तेज तथा यश करने में समर्थ हैं ही, साथ ही सूर्य तथा चन्द्रमा सदा उदित नहीं रहते, जब कि नल के तेज तथा यश सदा उदित रहते हैं, अतः सूर्य एवं चन्द्रमा की व्यर्थता सिद्ध हो जाती है । इस व्यर्थता के लिए कवि ने परिवेष को कुण्डलना के द्वारा अपहृत कर दिया है-अतः यहाँ अपह्नति अलंकार भी है-यहाँ ब्रह्मा के द्वारा यर्थ्यसूचक कुण्डलना खींच देने की उत्प्रेक्षा की गई है । इस प्रकार इसमें अपह्नति, प्रतीप तथा उत्प्रेक्षा इन तीनों का संकर पाया जाता है।।
कुछ आलङ्कारिक अनन्वय, उपमेयोपमा तथा प्रतीप को अलग से अलङ्कार न मानकर उपमा में ही इनका अन्तर्भाव मानते हैं। अन्य विद्वान् पञ्चम प्रकार के प्रतीप को आक्षेप अलङ्कार मानते हैं, क्योंकि यहां उपमान का आक्षेप किया जाता है। टिप्पणी-चन्द्रिकाकार ने इसको निम्न प्रकार से स्पष्ट कर के पूर्वपक्षीम तका ग्वण्टन किया है:
केचित्-दण्डिप्रभृतयः । अनन्वयोपमेयोपमाप्रतीपानामिति । प्रतीपपदेन चात्राद्यभेद. त्रयमेव गृह्यते, न स्वन्त्यभेदद्वयमपि । तत्रोपमितिक्रियानिष्पत्तेरभावेनोपमान्तर्भावस्यासम्भवात् । वस्तुतस्त्वाद्यभेदत्रयस्यापि नोपमान्तर्गतिर्युक्ता। चमत्कारं प्रति साधर्म्यस्य प्राधान्यानाप्रयोजकत्वात् । सामर्थ्य निबन्धन उपमानतिरस्कार एव हि तत्र चमत्कृतिप्रयोजकतया विवक्षितः, न तु साधर्म्यमेव मुखतश्चमत्कारितया विवक्षितमिति सहृदयसाक्षिकम् । एवमनन्वयोपमेयोपमयोरपि न सादृश्यस्य चमत्कारितया प्राधान्येन विवक्षा, किंतु द्वितीयतृतीयसदृशव्यवच्छेदोपायतयेति न तयोरप्युपमान्तर्गतियुज्यते । अन्यथा सादृश्यवर्णनमात्रेणोपमान्तर्भावे 'धैर्यलावण्यगाम्भीर्यप्रमुखैस्त्वमुदन्वतः । गुणैस्तुल्योऽसि भेदस्तु वपुषैवेशेन ते ॥' इति व्यतिरेकालंकारस्याप्युपमान्तर्गतिः स्यात् । तत्र साधर्म्यसमाना. ‘धिकरण वैधर्म्यमेव चमत्कारे प्रधानम्, न तु साधर्म्यमिति चेत्तुल्यमिदं प्रतीपादिष्वपीति सहृदयैराकलनीयम् । एतावदेवास्वरसबीजमभिसंधायोक्तं केचिदिति । ( चन्द्रिका पृ० १४ )