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संभावना प्रथमा स्वरूपोत्प्रेक्षेत्युच्यते । अहेतोर्हेतुभावेनाफलस्य फलत्वेनोत्प्रेक्षा हेतूत्प्रेक्षा फलोत्प्रेक्षेत्युच्यते । अत्र आद्या स्वरूपोत्प्रेक्षा उक्तविषयाऽनुक्तविषया चेति द्विविधा | परे हेतुफलोत्प्रेक्षे सिद्धविषयाऽसिद्धविषया चेति प्रत्येकं द्विविधे । एवं षण्णामुत्प्रेक्षाणां धूमस्तोममित्यादीनि क्रमेणोदाहरणानि । रजनीमुखे सर्वत्र विसृत्वरस्य तमसो नैल्यदृष्टिप्रतिरोधकत्वादिधर्मसंबन्धेन गम्यमानेन निमित्तेन सद्यःप्रियविघटितसर्व देशस्थित कोकाङ्गन्नाहृदुपगत प्रज्वलिष्यद्विरहानलधूमस्तोमतादात्म्यसंभावनास्वरूपोत्प्रेक्षा तमसो विषयस्योपादानादुक्तविषया । तमोव्यापनस्य नभःप्रभृतिभूपर्यन्तसकलवस्तु सान्द्रमलिनीकरणेन निमित्तेन तमः कर्तृकलेपनतादात्म्योत्प्रेक्षा, नभः कर्तृकाञ्जनवर्षणतादात्म्योत्प्रेक्षा चानुक्तविषया स्वरूपोत्प्रेक्षा; उभयत्रापि विषयभूतत मोव्यापनस्यानुपादानात् । नन्वत्र तमसो व्यापनेन निमित्तेन लेपनकर्तृतादात्म्योत्प्रेक्षा, नभसो भूपर्यन्तं गाढनी लिमव्याप्तत्वेन
कुवलयानन्दः
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वस्तु के ( अप्रकृत ) के साथ तादात्म्य संभावना हो, वह पहले ढंग की उत्प्रेक्षा है, इसे ही स्वरूपोत्प्रेक्षा कहते हैं। जहाँ किसी वस्तु के किसी कार्य के हेतु न होने पर उसकी हेतुत्वसंभावना की जाय, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा होती है, इसी तरह जहाँ किसी वस्तु के फल ( कार्य ) न होने पर उसमें प्रकृत के फलत्व की संभावना की जाय, वहाँ फलोत्प्रेक्षा होती है । इनमें पहली स्वरूपोत्प्रेक्षा (वस्तू त्प्रेक्षा) दो तरह की होती है- उक्तविषया तथा अनुक्तविषया। दूसरी तथा तीसरी उत्प्रेक्षा - हेतू प्रेक्षा तथा फलोत्प्रेक्षा- दोनों के प्रत्येक के सिद्धविषया तथा असिद्धविषया ये दो-दो भेद होते हैं । इसी प्रकार उत्प्रेक्षा के छः भेद हुएः१. उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा, २. अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा, ३. सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा, ४. असिद्ध. विषया हेतू प्रेक्षा, ५. सिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा, ६. असिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा । इन्हीं छह उत्प्रेक्षाभेदों के उदाहरण 'धूमस्तोम' इत्यादि पद्यार्थों के द्वारा दिये गये हैं । ( इन्हीं उदा हरणों का विश्लेषण करते हैं ।) 'धूमस्तोमं' इत्यादि श्लोकार्ध उक्तविषया स्वरूपोत्प्रेक्षा का उदाहरण है । यहाँ रात्रि के आरंभ में सब ओर फैलते अंधकार का वर्णन है, यह सर्वतो विसृवर अंधकार नील है तथा दृष्टि का अवरोध करने वाला है, अतः यह धर्मद्वय उसमें धुएँ के समान ही पाया जाता है । कवि ने इसीलिए नीलता तथा दृष्टिप्रतिरोधकता आदि धर्मों के संबंध के कारण - जिसकी व्यंजना हो रही है- - शाम के समय अपने प्रिय से वियुक्त होती समस्त कोक - रमणियों ( चक्रवाकियों) के हृदय में स्थित जलने के लिए उद्यत विरहानल के धूमस्तोम ( धुएँ के समूह ) के तादात्म्य की संभावना की गई है, अतः यहाँ स्वरूपोत्प्रेक्षा पाई जाती है । इस वाक्य में कवि ने स्वयं विषय ( उपमेय ) - अन्धकार - का साक्षात् उपादान किया है, अतः यह उक्तविषया स्वरूपोत्प्रेक्षा
। ‘लिम्पतीव' इत्यादि पद्यार्ध अनुक्तविषया का उदाहरण है । जब अन्धकार फैलता है, तो आकाश से लेकर पृथ्वी तक समस्त वस्तुएँ घनी मलिन हो जाती हैं, अतः अंधकार द्वारा समस्त वस्तुओं के मलिन करने के संबन्ध के कारण उस पर अंधकार के द्वारा की गई लेपन क्रिया के तादात्म्य की संभावना की गई है, इसी तरह उस पर आकाश के द्वारा बरसाये गये काजल के तादात्म्य की संभावना की गई है। ये दोनों अनुक्तविषया स्वरूपोत्प्रेक्षाएँ हैं, क्योंकि दोनों स्थलों पर ( 'लिंपतीव तमींगानि' तथा 'वर्षतीवांजनं नभः' में ) विषयभूत ( उपमेयरूप, प्रकृत ) तमोव्यापन ( आकाश से पृथ्वी तक अन्धकार के फैलने) का उपादान ( स्वशब्दवाच्यत्व ) नहीं पाया जाता ।