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[ १४ । (४) उदात्त का विषय सम्पत्ति, विभूति, वन, उपवन, नगर, राजप्रासादादि की
__ समृद्धि होती हैं। द्वितीय उदात्त:(१) द्वितीय उदात्त में किसी विशेष वस्तु का वर्णन करते समय कवि उससे संबद्ध महापुरुष
के चरित का वर्णन करता है। ( २ ) इस भेद में अतिशयोक्ति का होना अनिवार्य नहीं, अतिशयोक्ति मूलरूप में हो भी
सकती है, नहीं भी। (३) उदात्त के इस भेद में जब ऐतिहासिक या पौराणिक तथ्य का वर्णन होगा तो अतिशयोक्ति
मूल रूप में नहीं रहेगी, किंतु जब यह ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर नहीं होगा
तो मूल में अतिशयोक्ति अवश्य रहेगी। (४) इस वर्णन में महापुरुषों का चरित सदा अंग रूप में वर्णित होता है, वह प्रधान
(अंगी) नहीं होता। उदात्त तथा अतिशयोकि:-उदात्त में वैसे तो अतिशयोक्ति सदा बीज रूप में रहती हैं, किन्तु उदात्त वहीं होगा जहाँ समृद्धि का अतिशयोक्तिमय वर्णन हो, अतः इसका क्षेत्र अतिशयोक्ति से संकुचित है। वैसे यह अतिशयोक्ति का ही एक प्ररोह है।
उदात्त, भाविक तथा स्वभावोकि:-भाविक तथा स्वभावोक्ति में यथार्थ का वर्णन होता है। भाविक में भूतकाल अथवा भविष्यत्काल की घटना का इस तरह का यथार्थ वर्णन होता है कि वह वर्तमानकालिक जान पड़ती है। स्वभावोक्ति में बालक, पशु आदि की वर्तमान चेष्टा का यथार्थ वर्णन होता है। उदात्त यथार्थ पर आश्रित न होकर, प्रौढोक्ति या अतिशयोक्ति पर आश्रित रहता है।
(५५) संसृष्टि तथा संकर (१) संसृष्टि तथा संकर दोनों मिश्रालंकार है। इनमें परस्पर यह भेद है कि संसृष्टि में अनेक अलंकारों का मिश्रण तिलतण्डुलन्याय के आधार पर होता है, जब कि संकर में यह मिश्रण नीरक्षीरन्याय के आधार पर होता है।
(२) संसृष्टि में एक पब या एक काव्यवाक्य (कमी-कभी एक काव्यवाक्य अनेक पधों में भी हो सकता है, जैसे युग्मक, विशेषक, कुलक में ) में अनेक ( दो या अधिक ) अलंकारों का होना आवश्यक है।
(३ ) ये अलंकार या तो (अ) सभी शब्दालंकार हों, (आ) या सभी अर्थालंकार हों, (१) या शब्दालंकार तथा अर्थालंकार दोनों तरह के हों। इस तरह संसृष्टि के तीन भेद होते हैं।
(४) संसृष्टि के ये अलंकार परस्पर निरपेक्ष या स्वतन्त्र होते हैं तथा इनमें से किसी भी एक को दूसरे की शोमाहानि किये बिना हटाया जा सकता है। - संकर:
(१ ) संकर अलंकार में प्रयुक्त अनेक अलंकार परस्पर सापेक्ष होते हैं, संसृष्टि की भाँति निरपेक्ष नहीं, वे दूध और पानी की तरह एक दूसरे से घुले-मिले होते हैं।